ये सत्य हैं !

भयावह और दयनीय..! 



कभी कभी कोई ऐसा समाचार पढ़ने को मिल ही जाता है जिस से आत्मा हिल जाती है और स्वतः ही मन कह उठता है कि मानवता क्या वाकई खत्म हो गयी है या समाज में रहने का खमियाजा भुगत रहें हैं। सभ्य समाज से तो ये उम्मीद नहीं की जा सकती।  अभी हाल ही में एक खबर सुनी कि  एक नवजात बच्चा  कचरे के पास मिला और उसे गली के आवारा कुत्ते नोच कर खा रहें थे। जब आस -पास के लोगों को पता चला तो कुत्तों को भगाया और  आखिरी सांस लेते बच्चे को तुरंत पास के अस्पताल पहुँचाया।लेकिन तब तक बच्चा मरने की कगार पर पहुँच चुका था और अंततः उसकी मृत्यु हो गयी। क्या ये सुन कर या पढ़ कर कुछ अहसास हुआ ? जरूर होना चाहिए क्योंकि यही अहसास एक दिन समाज की स्थिति सुधारने में मदद करेगा।
                           क्या मजबूरी रही होगी जो एक माँ या उसके परिवार का ही कोई सदस्य इस तरह जीते जागते बच्चे को फेकने पर मजबूर हो गए। एक नन्हा सा जीव जिसे सिर्फ देख लेने भर से ही प्यार उमड़ने लगता है , उसकी मासूम सी भोली सूरत देख कर लगता है कि शायद इससे प्यारा दुनिया में और क्या होगा, जिस के शरीर की खुशबू दुनिया के बड़े से बड़े इत्र को पीछे छोड़ सकती है , जिस के आँखे खोल कर देखने भर से ममता का अहसास होने लगे या जो अपनी बाल सुलभ क्रियाओं से बार बार देखते रहने को बाध्य करें , जिस के मुलायम से हाथों में आप की एक अंगुली की पकड़ अपनेपन का असीमित अहसास कराती हैं ,जिस के मुख की दूधिया खुशबू के कारण उसे हमेशा सूंघते रहने का मन करता हैं , जिस के बदन की उतरती चमड़ी उसके अत्यंत नाजुक होने का अहसास कराती हैं, जिस का मुख देख कर बेटा और बेटी का फर्क मिटने लगता हैं । ये सब तो शायद बहुत छोटी सी उपमाएं है जो की एक नवजात के बारे में कही जा सकती हैं।  पर उस मा का क्या जिसने नौ माह उसे कोख में रखा होगा।  जिस दिन से खुद के अंदर जीव  के अंश का अहसास होने लगता हैं उसी दिन से माँ उस से जुड़ जाती हैं। जिस दिन वह पहली बार कोख में लातें मारना शुरू करता है वह अनुभूति दुनिया की श्रेष्ठ अनुभूतियों में से एक होती हैं। उस दिन वाकई माँ को उस अनदेखे बच्चे से प्यार हो जाता है और वह उसके रूप की कल्पना करने लगती हैं। मुझे याद है कि मैं कभी भी अपने बच्चो को टीकाकरण के लिए अस्पताल नहीं ले जाती उनके पापा ही ये कार्य करते , क्योंकि मैं उनको सुई लगते देख ही नहीं पाती और उनके रोने के साथ खुद ही रोने लगती। ये होता है एक माँ का कलेजा। ऐसे में कैसे एक माँ के कलेजे ने एक दूसरे कलेजे के टुकड़े को यूँ सड़क पर मरने के लिए,  कुत्तों से नोचें जाने के लिए फेक दिया। ये अमानवीयता की हद है।  और इस हद में एक अबोध को अपनी जान गवानी पड़ती है जिस ने कोई गलती नहीं की हैं। जो सिर्फ छाती से लगाये जाने के हक़दार हैं।    
                                            मुझे याद है की हम जिस घर में रहते थे उस के पीछे काफी खाली जगह थी तो वहाँ सूअर अपने परिवार के साथ खाने की तलाश में आया करते थे।  एक दिन बहुत ही छोटे और मासूम से दो तीन बच्चे हमारी तार की फेंसिंग पार कर के घर में घुस गए।  मैं उस समय छोटी थी इसलिए  उन्हें पूचकार कर खाने - पीने का सामान देने लगी।  क्योंकि वह मुझे इतने प्यारे लग रहे थे  की  मैं उन्हें भगाना नहीं चाहती थी।  मेरी नानी ने जब देखा तब मुझे खूब डांट पड़ने लगी।  फिर भी मैं अपनी जिद पर अड़ी  रही और उन्हें खूब  खिला पिला के विदा किया।  ये घटना मैंने इस लिए सुनायी कि जिस जानवर से हम सभी नफरत करते हैं और जिसे छूना भी गवारा नहीं उस के बच्चे भी इतने प्यारे हो सकते है की उनके साथ ऐसा किया जाए।  तो एक इंसान का बच्चा जो की हमारे आप की ही तरह हँसता मुस्कुराता  हो उसे कैसे फेकां  जा सकता हैं। और फिर ये उस समय सोचने का विषय है जब उस संतान को हम लाने की तैयारी कर रहे हो या कोई ऐसा कार्य कर रहें हो जिस से उसके आने का मार्ग खुले।  आज  की भागती  दौड़ती दुनिया में  अनेकों उपाए है जिन के जरिये जीव में जान पड़ने से पहले ही उसे हटाया जा सकता हैं।  ये पहले ही आजमाना चाहिए। ताकि किसी मासूम को उसकी सजा नहीं भुगतनी पडे। और फिर कभी ऐसे दिल दहला दने वाले समाचार न सुनने पडें।  

Comments