धर्म... पाखंड बनाम समर्पण

  धर्म , पाखंड बनाम समर्पण

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धर्म मनुष्य की आत्मा का प्रकाश है, किंतु जब यही धर्म बाहरी आडंबर, सत्ता, या अहंकार का उपकरण बन जाता है, तो वह पाखंड बन जाता है।

भारतीय पुराणों और महाकाव्यों में ऐसे अनेक पात्र हैं जिन्होंने धर्म को अपने अनुसार परिभाषित किया — कोई उसे शक्ति का माध्यम बना बैठा, तो कोई उसे भक्ति का पथ मानकर जी उठा।

रावण और प्रह्लाद — दोनों ने धर्म को जाना, पर देखा विपरीत दिशा से।

एक ने ज्ञान और तप से धर्म को जीतना चाहा, दूसरे ने समर्पण और विश्वास से धर्म को जी लिया।

यहीं से धर्म और पाखंड की सीमारेखा आरंभ होती है।

🔶  धर्म का अर्थ और विकृति -

“धर्म” संस्कृत धातु धृ से बना है — जिसका अर्थ है धारण करने वाला, अर्थात् जो संसार को स्थिर रखे। वास्तविक धर्म वह है जो मनुष्य के भीतर सत्य, करुणा और न्याय को धारण करे। पर जब धर्म केवल दिखावे, तर्क, और अहंकार का साधन बन जाता है, तो वह पाखंड कहलाता है।

धर्म का पाखंड वहीं शुरू होता है, जहाँ “ईश्वर” की जगह “स्वार्थ” बैठ जाता है।

जहाँ साधना की जगह प्रदर्शन आ जाता है। और सेवा की जगह सत्ता का लोभ।

रावण इस पाखंड का प्रतीक है — जिसने धर्म, वेद, और तपस्या सब कुछ सीखा, पर अंततः सब कुछ अपने अहंकार के लिए उपयोग किया।

प्रह्लाद इसके विपरीत उस भक्ति का प्रतीक है जिसमें धर्म केवल ईश्वर के प्रति समर्पण और सत्य की निष्ठा है।

🔶 रावण — ज्ञान का अभिमान और धर्म का आवरण

रावण असाधारण विद्वान था — वेदों का ज्ञाता, शिवभक्त, महान तपस्वी।

उसने तपस्या कर वरदान प्राप्त किया, शिवतांडव की रचना की, और अनेक लोकों को जीत लिया।

किन्तु रावण की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि उसने धर्म को “अपनी शक्ति की सिद्धि” का साधन बना लिया। वह जानता था कि धर्म क्या है, पर वह धर्म को अपने अहंकार की सेवा में लगाना चाहता था।

उसने सीता का अपहरण किया यह कहते हुए कि “मैं भी धर्म का पालन कर रहा हूँ, क्योंकि मेरी बहन शूर्पणखा का अपमान हुआ है।”

यह वही क्षण था जब धर्म, न्याय से हटकर व्यक्तिगत प्रतिशोध का औजार बन गया। रावण का धर्म न्याय नहीं था, बल्कि अहंकार का तर्क था। उसने अपने कर्मों को धर्मसंगत दिखाने के लिए शास्त्रों का प्रयोग किया। उसकी साधना वास्तविक थी, पर उसका उद्देश्य असत्य था — और यही धर्म का सबसे बड़ा पाखंड है।

वास्तविक धर्म कभी अहंकार को पोषित नहीं करता। वह व्यक्ति को जितना ऊँचा उठाता है, उतना ही विनम्र बनाता है।

पर रावण का ज्ञान उसे विनम्र न बनाकर विद्रोही बना गया।

वह ईश्वर को पूजता था, पर स्वयं ईश्वर बन बैठा।

रावण की यह स्थिति आज के युग में भी दिखाई देती है —

जब विद्या, धर्मग्रंथ और आध्यात्मिकता का उपयोग सत्ता, संपत्ति और प्रतिष्ठा के लिए किया जाता है।

जब मंदिरों के द्वार पर दंभ खड़ा होता है और भीतर भक्ति रोती है —

तब हर युग में एक “रावण” जन्म लेता है।

🔶 प्रह्लाद — भक्ति की निर्मलता और धर्म की आत्मा

दूसरी ओर प्रह्लाद है — हिरण्यकशिपु का पुत्र, परंतु धर्म का सच्चा पुत्र।

वह न वेदों का ज्ञाता था, न राजसत्ता का अधिकारी। पर उसके हृदय में “नारायण” के प्रति निष्कपट श्रद्धा थी।

जब उसके पिता ने पूछा — “तेरा ईश्वर कहाँ है?” तो प्रह्लाद ने कहा — “जहाँ सत्य है, वहीं मेरा ईश्वर है।” यह उत्तर केवल भक्ति का नहीं, बल्कि धर्म का सार है।

प्रह्लाद ने किसी तर्क से नहीं, बल्कि निष्ठा से धर्म को जिया। वह जानता था कि धर्म बाहरी रूपों में नहीं, भीतर की आस्था में बसता है।

धर्म के नाम पर हिंसा करने वाले पिता के सामने भी उसने अहिंसा और प्रेम का मार्ग नहीं छोड़ा।

उसके लिए धर्म किसी संस्था या व्यक्ति से बंधा नहीं था — वह तो सत्य के प्रति आत्मसमर्पण था।

प्रह्लाद का धर्म किसी पुरस्कार की आकांक्षा नहीं करता, वह केवल प्रेम का प्रवाह है।

उसने कष्ट सहकर भी अपनी श्रद्धा नहीं छोड़ी, क्योंकि उसका ईश्वर बाहर नहीं, भीतर था।

🔶  रावण और प्रह्लाद — दो दृष्टियाँ, एक सत्य

रावण और प्रह्लाद दोनों ने ईश्वर की खोज की, दोनों ने तप किया, दोनों को शक्ति मिली — पर अंतर था उद्देश्य का।

रावण का धर्म स्वार्थ और अहंकार से प्रेरित था।

प्रह्लाद का धर्म भक्ति और सत्य से।

रावण ने ईश्वर को जीतना चाहा,

प्रह्लाद ने ईश्वर में विलीन होना चाहा।

रावण के लिए धर्म “ज्ञान की शक्ति” था,

प्रह्लाद के लिए धर्म “विश्वास की ज्योति”।

यही अंतर बताता है कि धर्म और पाखंड के बीच की दूरी केवल बाहरी कर्मों से नहीं, बल्कि मन की भावना से तय होती है।

एक ही शास्त्र पढ़कर कोई रावण बन सकता है, और एक बालक प्रह्लाद सच्चा धर्मात्मा बन सकता है।

🔶  धर्म का पाखंड — आज का परिप्रेक्ष्य

आज के युग में धर्म फिर रावण की दिशा में बढ़ता दिखता है।

हमारे समाज में धर्मग्रंथों का अध्ययन तो है, पर आत्मसाक्षात्कार नहीं।

भक्ति के नाम पर आयोजन हैं, पर अनुभूति नहीं। दान है, पर दया नहीं।

प्रार्थना है, पर समर्पण नहीं।

जब धर्म का प्रयोग राजनीति, व्यवसाय या प्रतिष्ठा के लिए होने लगे,

जब मठ और मंदिरों में प्रतिस्पर्धा का शोर हो, जब “कौन अधिक धार्मिक है” इसका प्रदर्शन हो — तो समझिए कि धर्म रावण के महल में कैद है।

ऐसे समय में प्रह्लाद की भक्ति हमें स्मरण कराती है कि धर्म का वास्तविक स्वरूप सादगी, सत्य और करुणा में है, न कि तर्क, बहस और आडंबर में

🔶  धर्म की परीक्षा — जब सत्य कठिन हो

प्रह्लाद का धर्म इसलिए वास्तविक है क्योंकि उसने उसे तब भी नहीं छोड़ा जब जीवन संकट में था। सच्चा धर्म वही है जो परिस्थिति के अनुसार बदलता नहीं, जो भय या प्रलोभन से विचलित नहीं होता।

रावण ने जब धर्म को अपने स्वार्थ के अनुसार मोड़ा, तब धर्म ने उसका साथ छोड़ दिया।

प्रह्लाद ने जब धर्म को संकट में भी थामा, तब स्वयं ईश्वर उसकी रक्षा के लिए प्रकट हुए।

यही धर्म का रहस्य है — धर्म किसी देवता का उपकार नहीं, बल्कि मनुष्य के सत्य का पुरस्कार है।

🔶  रावण और प्रह्लाद — भीतर के दो रूप

हर मनुष्य के भीतर रावण और प्रह्लाद दोनों हैं। रावण वह है जो ज्ञान चाहता है, पर अपनी शर्तों पर । प्रह्लाद वह है जो प्रेम चाहता है, बिना शर्तों के।

रावण कहता है — “मैं भी ईश्वर हूँ।”

प्रह्लाद कहता है — “ईश्वर मुझमें है।”

रावण धर्म को नियंत्रण के साधन की तरह देखता है,

प्रह्लाद धर्म को समर्पण के अवसर की तरह।

मनुष्य का विकास तभी संभव है जब वह अपने भीतर के रावण को पहचानकर उसे पराजित करे। यही कारण है कि हर वर्ष रावण का दहन केवल उत्सव नहीं, बल्कि आंतरिक पाखंडों को जलाने की प्रक्रिया है।

🔶  निष्कर्ष — धर्म का सच्चा स्वरूप

धर्म का पाखंड रावण की तरह विद्वता और शक्ति के आवरण में छिपा होता है, और वास्तविक धर्म प्रह्लाद की तरह सरलता में मुस्कुराता है।

रावण ने धर्म को बाहर खोजा — तपस्या, यज्ञ, शक्ति में।

प्रह्लाद ने धर्म को भीतर पाया — विश्वास, प्रेम और सत्य में।

रावण का धर्म उसके पतन का कारण बना,

प्रह्लाद का धर्म उसके उद्धार का।

शेष अगले भाग में ------वर्तमान परिदृश्य में धर्म की स्थिति

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