विश्वास छलनी होते देखना
विश्वास छलनी होते देखना :
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क्यों बार बार हम अपने विश्वास को छलनी होते देखते हैं
क्यों बार बार हम अपनी उम्मीद को बिखरते रोते देखते हैं
इतनी तो बड़ी आकांक्षाएं नहीं हैं...जो आसमां से ऊंची हों
फिर क्यों अपनी जिजीविषा को मुहं छिपाए सोते देखते हैं
ख़्वाबों सरीखी दुनिया सोची तो बहुत,..पर पाई नहीं हमने
अमूमन हमने अपनी आंखों को चकाचौंध से जागते पाया
उसे खूबसूरत से मद्धम अंधियारे की छुअन नहीं मिल सकी
बस रातों को थकी बोझिल पलकों का बोझ ढोते देखते हैं
कुछ मसाईल ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बनकर रह गए हैं अब
वक्त भी रेत की मानिन्द हौले हौले मुट्ठी से सरकता जा रहा
कुछ है जो पीछे छूटता जा रहा है हमसे, क्या ये पता नहीं
हम बस दिले सुकूँ व ख़ुशनसीबी को धीरे धीरे खोते देखते हैं
क्यों बार बार हम अपने विश्वास को छलनी होते देखते हैं
क्यों बार बार हम अपनी उम्मीद को यूँ बिखरते रोते देखते हैं।
~ जया सिंह ~
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