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दिवाली और उस से जुड़े तमाम त्योहारों का आयोजन गुजर गया। इन छुट्टियों में सिर्फ स्वच्छता और रसोई से जुड़े कार्यों में ही व्यस्तता रही। ऐसी उम्मीद है की आप सभी की भी दीपावली भी अच्छी गुजरी होगी। आज दीपावली की सार्थकता के बारे में सोचे तो क्या वाकई हम अच्छाइयों की बुराइयों पर विजय के प्रतीक के रूप में ये पर्व मानते हैं। ऐसा है तो दिखता तो नहीं ? क्योंकि आज भी सामाजिक गंदगी आस पास ऐसे पसरी हुई है जिसे हम चाह कर भी अलग नहीं कर पा रहे हैं। अपने मस्तिष्क को पढ़ें और देखें की सबसे पहले आप खुद कितने सफाई पसंद और अच्छाइयों से प्रेरित हो पाएं हैं। अभी भी हम और आप कही न कही अंदर से पूरी तरह नहीं बदल पाएं है। और सबसे बड़ा भयावह सत्य ये है कि समय गुजरने के साथ ये स्थिति और बदतर हो रही हैं। अपना और सिर्फ अपना सोचते रहने का विचार अपनत्व की उन भावनाओं को खोखला करता जा रहा है जिन सूत्रों से समाज आपस में बंधा हुआ था। ऐसा इस लिए है की जो दूसरों के लिए बुरा हो सकता है हम उसी में अपनी अच्छाइयां ढूंढ लेते हैं। हमें हमेशा वहां नफा नजर आता है जहाँ किसी और का नुकसान होता दीख रहा हो । यही सब वजहें चोरी चकारी , खून खराबा , बलात्कार , मारपीट गुंडागर्दी , और सामाजिक अव्यवस्था को बढ़ावा दे रही हैं। एक बार महसूस करे इन त्योहारों का महत्व क्या सिर्फ ये है कि एक दूसरे के घर जाएँ और अच्छी अच्छी मिठाइयां पकवान खा पी कर चले आएं ? क्या इन त्योहार के उपलक्ष्य में हमाँरा समाज के लिए योगदान प्रस्तुत नहीं होना चाहिए। अपने लिए और अपनों के लिए करना तब फलीभूत होगा जब सभी सुरक्षित होंगे। ये सुरक्षा कई तरीके से से की जा सकती हैं , पहली रोगों से …सफाई के जरिये , अन्याय से … न्याय के जरिये ,अत्याचार से.…… एकता के जरिये ,आकस्मिक दुर्घटना से.… सजगता के जरिये ,और सबसे बड़ी चीज द्वेष से.…… प्रेम के जरिये। त्यौहार मनाने के जो भी कारण पुरातन काल में बताये गए हों उनकी प्रासंगिकता समय के साथ थोड़ी बहुत बदली जरूर होगी पर अर्थ अब भी वही हैं। पर हम सिर्फ खाने पीने , मौज और मस्ती से इसे जोड़ कर कुछ सार्थक करने से हमेशा बचते रहें हैं।
हम कब बदलेंगे और कब ये समाज बदलेगा ये प्रश्न आज सुरसा की तरह मुख चौड़ा करता जा रहा है और हम सब उसमे उलझते जा रहें हैं। इन्ही के बीच आने वाले ये अनेकों त्यौहार अपने अपने तरीकों के साथ निपटाएं जा रहे हैं। इन्हे निपटना ही कहेंगे क्योंकि जब उनके वास्तविक अर्थ के साथ उन्हें स्वीकार नहीं किया जा रहा तब ये ही माना जा सकता है की समाजिक प्राणी होने के नाते आप इन्हे निपटा कर इतिश्री कर रहें हैं। एक बार सर्व जन सुखाय के बारे में सोचना प्रारम्भ करें तब सही मायनों में इन त्योहारों की रौनक देखने को नजर आएगी। सिर्फ अपना घर साफ़ कर लेना और पकवान बना कर खा लेना, खिला देना ही किसी त्यौहार का अर्थ नहीं है। राम चन्द्र जी ने भी रावण का अंत कर के बुराई का विनाश किया था इस लिए हर साल के त्यौहार पर अगले वर्ष के लिए एक नया प्रण अवश्य करना चाहिए जिस से हर वर्ष कुछ अच्छा कुछ सार्थक आप के द्वारा हो पाये। सिर्फ एक छोटा सा प्रयास आप का और आप के साथ समाज का त्यौहार का रंग बदलने की क्षमता रखता हैं पहलऔर कोशिश तो करें सोच अवश्य बदलेगी………………
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