स्व आँकलन... तुलनात्मक क्यों? ? भाग -1
स्व आंकलन......तुलनात्मक क्यों ? ? ?
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(भाग-1)
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बहुत दिनों से अपने विचार कविता के माध्यम से व्यक्त करते हुए आज विचार आया कि लेख लिखा जाए । और यह विचार आजकल की राजनीतिक स्थिति देख कर मन में आया। देश में जो भी स्थिति हो , जैसा भी कार्य हो रहा हो , जैसी भी उठापटक चल रही हो , जैसा भी घटनाक्रम चलायमान हो , जैसी भी विकास की गति हो .....ऐसे बहुत कुछ का आंकलन होते रहना आवश्यक तो है। क्योंकि इसी से और बेहतर होने के लिए रास्ते बनाने की प्रेरणा मिलती है।
पर इस लेख के शीषर्क के अनुसार जो मुख्य चर्चा का विषय है वह यह है कि ये आंकलन तुलनात्मक क्यों रखा जाए ? ? तुलनात्मक आंकलन दो तरफ़ा होता है । जहां बीच में हम खड़े होते हैं । हमारे एक तरफ़ अति विकसित और दूसरी तरफ विकासशील स्थिति होती है। अब ये आंकलन दोनों तरफ़ देख कर किया जाता है ।जिससे अपनी स्थिति का सही अंदाज़ा लगाया जा सके। पर क्या ये सही तरीका है ? ?
अब इस तरह के तुलनात्मक अध्ययन का प्रभाव समझा जाये। जब भी हम अति विकसित से तुलना करेंगे तो उस जैसा बनने के लिए कोशिश में लग जाएंगे । ज़रूरी नहीं कि जो संसाधन अति विकसित के पास हो वह हमारे पास भी हो। ऐसे में उनके जुगाड़ की कोशिश और प्रयत्न बिना वजह समय और धन की बर्बादी की ओर ले जा सकते हैं। और यह भी ज़रूरी नहीं कि विकास की राह पर चलने के हर प्रयास में हम उसकी तरह सफल ही हो जायें।
अब दूसरी तरफ़ विकासशील से तुलना में हम अमूमन खुद को बेहतर पाएंगे तो ये संतुष्टि हमें ये अहसास कराती रहेगी कि हम उससे दो चार सीढ़ी ऊपर खड़े है। अभी उसमें और हममें काफी फासला है। ये तुलना भी उचित नहीं है। तो अब यह समझा जाये कि किस तरह का आंकलन सबसे सर्वश्रेष्ठ है ? ?
सबसे बेहतर आंकलन है स्व तुलनात्मक .....अर्थात किसी की ओर मत देखो। सिर्फ़ खुद से , अपने पिछले उपलब्द्धि से और अपनी क्षमताओं के आधार पर पहले से बेहतर और क्या हांसिल किया जा सकता है यह देखना उचित है । इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि जब हम खुद से बेहतर होने का प्रयास करेंगे तो हम उपलब्ध संसाधन और परिस्थिति के अनुसार ही क़दम उठाएंगे। जिससे हमारे प्रयासों की सफलता का प्रतिशत बढ़ जाएगा।
ये संभव है कि हम विकास की ओर बढ़ते हुए जिस पायदान पर खड़े होते हैं उस पर अगल या बगल में कोई ज़रूर साथ दिखेगा। पर उस समय भी हमें सिर्फ़ स्वयं की ओर और अपनी पिछली उपलब्द्धि की ओर देखना सही होगा। क्योंकि उन दोनों की ओर देखना हमें हमारे लक्ष्य से भटका देगा। और हम उनकी तरह ,उनके पीछे या आगे का व्यवहार अपनाने लगेंगे। इस लिए सबसे उत्तम है कि स्व आंकलन अन्य के साथ तुलनात्मक न होकर खुद के साथ हो तब सही मायनों में उपलब्द्धि हमें उत्साहित करेगी ।
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बहुत दिनों से अपने विचार कविता के माध्यम से व्यक्त करते हुए आज विचार आया कि लेख लिखा जाए । और यह विचार आजकल की राजनीतिक स्थिति देख कर मन में आया। देश में जो भी स्थिति हो , जैसा भी कार्य हो रहा हो , जैसी भी उठापटक चल रही हो , जैसा भी घटनाक्रम चलायमान हो , जैसी भी विकास की गति हो .....ऐसे बहुत कुछ का आंकलन होते रहना आवश्यक तो है। क्योंकि इसी से और बेहतर होने के लिए रास्ते बनाने की प्रेरणा मिलती है।
पर इस लेख के शीषर्क के अनुसार जो मुख्य चर्चा का विषय है वह यह है कि ये आंकलन तुलनात्मक क्यों रखा जाए ? ? तुलनात्मक आंकलन दो तरफ़ा होता है । जहां बीच में हम खड़े होते हैं । हमारे एक तरफ़ अति विकसित और दूसरी तरफ विकासशील स्थिति होती है। अब ये आंकलन दोनों तरफ़ देख कर किया जाता है ।जिससे अपनी स्थिति का सही अंदाज़ा लगाया जा सके। पर क्या ये सही तरीका है ? ?
अब इस तरह के तुलनात्मक अध्ययन का प्रभाव समझा जाये। जब भी हम अति विकसित से तुलना करेंगे तो उस जैसा बनने के लिए कोशिश में लग जाएंगे । ज़रूरी नहीं कि जो संसाधन अति विकसित के पास हो वह हमारे पास भी हो। ऐसे में उनके जुगाड़ की कोशिश और प्रयत्न बिना वजह समय और धन की बर्बादी की ओर ले जा सकते हैं। और यह भी ज़रूरी नहीं कि विकास की राह पर चलने के हर प्रयास में हम उसकी तरह सफल ही हो जायें।
अब दूसरी तरफ़ विकासशील से तुलना में हम अमूमन खुद को बेहतर पाएंगे तो ये संतुष्टि हमें ये अहसास कराती रहेगी कि हम उससे दो चार सीढ़ी ऊपर खड़े है। अभी उसमें और हममें काफी फासला है। ये तुलना भी उचित नहीं है। तो अब यह समझा जाये कि किस तरह का आंकलन सबसे सर्वश्रेष्ठ है ? ?
सबसे बेहतर आंकलन है स्व तुलनात्मक .....अर्थात किसी की ओर मत देखो। सिर्फ़ खुद से , अपने पिछले उपलब्द्धि से और अपनी क्षमताओं के आधार पर पहले से बेहतर और क्या हांसिल किया जा सकता है यह देखना उचित है । इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि जब हम खुद से बेहतर होने का प्रयास करेंगे तो हम उपलब्ध संसाधन और परिस्थिति के अनुसार ही क़दम उठाएंगे। जिससे हमारे प्रयासों की सफलता का प्रतिशत बढ़ जाएगा।
ये संभव है कि हम विकास की ओर बढ़ते हुए जिस पायदान पर खड़े होते हैं उस पर अगल या बगल में कोई ज़रूर साथ दिखेगा। पर उस समय भी हमें सिर्फ़ स्वयं की ओर और अपनी पिछली उपलब्द्धि की ओर देखना सही होगा। क्योंकि उन दोनों की ओर देखना हमें हमारे लक्ष्य से भटका देगा। और हम उनकी तरह ,उनके पीछे या आगे का व्यवहार अपनाने लगेंगे। इस लिए सबसे उत्तम है कि स्व आंकलन अन्य के साथ तुलनात्मक न होकर खुद के साथ हो तब सही मायनों में उपलब्द्धि हमें उत्साहित करेगी ।
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