सकारात्मक और नकारात्मक सोच के अंतर की पहचान , और उद्भव का कारण

सकारात्मक और नकारात्मक सोच के अंतर की पहचान और उद्भव का कारण......!!•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••


जब भी हम विपरीत परिस्थिति में रहते है। अनमने से हो जाते हैं। तब हमारे सभी करीबी और हम स्वयं भी सकारात्मक सोचने पर जोर देने लगते है। सकारात्मक अर्थात उस परेशानी से हट कर ऐसा समाधान जो हमारे मन को बेहतर महसूस करवाता है। 
     अब शीर्षक के अनुसार पहली बात ये है कि मन में उमड़ती बातों को हम कब नकारात्मक समझें कब सकारात्मक ....? ? जब कोई भी बात या उसके प्रभाव की तरंगें खुद को या हमसे जुड़े किसी भी व्यक्ति के मन को व्यथित करें। उसे विचारने पर वह अच्छे और बुरे के बीच भ्रम पैदा करने में उलझाएं । वह निश्चित ही नकारात्मक सोच है। इसके विपरीत जब कोई सोच या बात हमें अंदर से खुशी महसूस कराए और उस खुशी को हमसे जुड़े लोग भी महसूस करें , ये सकारात्मक सोच है। लेकिन हम ज्यादातर किसी भी स्थिति में नकारात्मक सोच से सबसे पहले उलझते हैं।  कभी कभी ये कहा जाता है कि नकारात्मक सोचो और फ़िर कुछ बहुत अच्छा मिल जाये तो उसका मज़ा दोगुना हो जाता है। पर इसके विपरीत ये भी देखना आवश्यक है कि जितनी देर हम उन नकारात्मक सोच के साथ जूझते हैं उतनी देर हमारे मन की स्थिति डावांडोल रहती है। उससे प्रभावित होकर हमारे दूसरे काम बिगड़ते है। ऐसे में अगर उस सोच का सकारात्मक परिणाम सामने आ भी गया तो क्या ....तब तक हमारी मन की शक्ति का संबल कमज़ोर हो चुका होता है। अतः तात्पर्य ये है कि नकारात्मक सोच , आने वाले सकारात्मक पलों के मज़े को प्रभावहीन कर देती है।
                      अब दूसरी महत्वपूर्ण बात ये कि हम सबसे पहले यह पता करें कि हमारे इन नकारात्मक सोच का उद्भव या जन्म कहाँ से हो रहा है ? हमारा मस्तिष्क हर पल आस पास हो रही घटनाओं को देखता , सुनता ,समझता और पढ़ता है। ये घटनाएं अच्छी बुरी दोनों तरह की होती है। उन घटनाओं से हमारा वास्ता लगभग पड़ता ही रहता है । लगातार , कई बार सामने आने पर वह हमारी यादों में कहीं अपना स्थान बना लेती है।  यही कारण है ऐसी घटनाओं से जुड़े किसी संस्मरण के स्वप्न में आने का । अब इन घटनाओं के व्यवहार से जुड़ा कोई दृश्य जब हमारे सामने आता है तो उस घटना का जो भी परिणाम हुआ था वही परिणाम हम उस दृश्य से भी जोड़ लेते हैं। 
                              उदाहर के तौर पर लगातार कई दिनों से टी वी पर कोरोना और उससे संबंद्धित लक्षणों की ही चर्चा सुन रहे है। दिमाग़ इन्हीं सब घटनाओं और उसके परिणामों को सुन , देख , समझ और पढ़ रहा है। ऐसे में अगर कभी भी उन लक्षणों को अपने साथ होता देख रहे तो बस ये नकारात्मक सोच मन मे घर करने लगती है कि हो ना हो अब कोरोना की चपेट में आ गए। अतः सबसे जरूरी है अपने आस पास की जानकारियों के स्तर का चुनाव। हम ही अच्छी जानकारी चुन कर बुरी को किनारे रख सकते है। चुनाव हमारे खुद पर है। जब अच्छी बातों , व्यवहारों, लोगों को खुद से जोड़ेंगे तो उनसे जुड़े अच्छे परिणामों से हम और हमारी सोच दोनों सकारत्मक रहेगी। अपने मस्तिष्क को हम अपनी मर्ज़ीअनुसार ढाल सकते है। बस थोड़े से धैर्य और विश्वास की ज़रूरत है।  अपने व्यक्तित्व में खुद ही सकारात्मक बदलाव महसूस होने लगेगा।


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