जिन्हें सुध ना थी वो कुचल गए !! 😰

जिन्हें सुध न थी वो कुचल गए...!
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(उपरोक्क्त कविता उन सोलह मजदूरों को समर्पित है जो 
थकान से बेहाल होकर रेल 
की पटरियों पर सोये ,पर 
कुचल कर मर गए और
 दुनिया छोड़ गए ।)
                                                कीड़ें मकोड़ों से कुचल गए वो
उनकी शायद यही औक़ात थी,
कारखाने में लोहा पिघला कर पटरी
बनाने में ही निमित्त उनकी मौत थी ।

सोते हुए ही दुनिया छोड़ गए सब
जगकर देखा नहीं सुबह का उजाला,
रेल के कोयले की कालिख कर गयी
उनके हाथों की जीवन रेखा को काला।

आखिर चाहा भी क्या था उन्होंने
बस कैसे भी...अपने घर की वापसी 
काम -काज को तरसती जिंदगी में,
 पेट भरने को दो रोटी भले ही हो बासी ।

चल दिये पैदल अपने घर की ओर
 जरूरी सामानों की गठरी लिए हुए,
 मन में वेदना और पेट में भूख की आग
व निराशा की वेदना गहरी लिए हुए।

जब थक गए,बेहाल हो कर सो गए
सोचा नहीं था यूँ मौत आ जाएगी।
 बिना आहट, सीटी और कंपन के
रेल यूँ कुचलती हुई चली जायेगी।

काश थकान हावी न होती नींद पर 
 तो जग जाते शायद किसी खटके से,
अब क्या गाँव ,घर और काम-काज
सबकी चाहत खत्म हुई एक झटके से।

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