समर्पण की महत्ता

 समर्पण की महत्ता :              ~~~~~~~~~~~~~~                 

समर्पण बहुत प्यारी स्थिति है। जिसमें कोई भी अपनी इच्छा से किसी अन्य इंसान , स्थिति या वस्तु के प्रति समर्पित हो जाता है।परंतु ये कोई सामान्य फैसला नहीं होता। इसे लेने के लिए सबसे पहले दृढ़ निश्चय की आवश्यकता होती है। जो खुद को उस समर्पण के प्रति निष्ठावान बनाये रखता है। जब कोई किसी के प्रति समर्पित हो जाता है तो इसका अर्थ है कि वह उसके जीवन के अंतिम निर्णयों को प्रभावित करने वाला कदम उठा रहा है। इससे सारे जीवन की दशा और दिशा बदल सकती है। 

भगवत गीता में जब अर्जुन युद्ध से डर रहे थे। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए तमाम धर्मिक मान्यताओं से विमुख होकर स्वयं की शरण में आने के लिए कहा। अर्थात खुद को श्रीकृष्ण को समर्पित करने की बात कही। जिससे अर्जुन वह कर सके जो कृष्ण करवाना चाहते हों। क्योंकि अर्जुन खुद को रिश्तों, बाधाओं और मोहजाल में फंसा महसूस कर रहे थे। इसलिए समर्पण ही ऐसी राह थी जो उन्हें सही की ओर ले जा सकती थी। और वो समर्पण भी श्रीकृष्ण के प्रति। जो कभी कुछ गलत होने ही नहीं देंगे।

अतः समर्पण में व्यक्ति पराधीन हो जाता है।इसके अच्छे या बुरे परिणाम इस बात पर निर्भर करते हैं कि उसने समर्पण किसके प्रति चुना है। हर व्यक्ति में अपनी समझ की एक instinct होती है। जो ये बताती है कि क्या अच्छा है क्या बुरा अगर उसे ignore करके कोई समर्पण की राह चुनता है तो ये उसके जीवन को प्रभावित करेगा। परन्तु यदि वह अपनी instinct को सुन कर सही राह चुनेगा और उसके प्रति समर्पित होयेगा तो अवश्य ही उसे सफलता मिलेगी। 

अब इसे समर्पण या पूर्ण dedication कहें पर जब तक किसी कार्य, व्यक्ति या स्थिति के प्रति ये भाव नहीं उपजेंगे। उसमें perfection नहीं आएगा। इसलिए समर्पण जरूरी है। 

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