संतान की परवरिश मुश्किल क्यों
संतान की परवरिश इतनी मुश्किल क्यों : ••••••••••••••••••••••••••••••
मानव जीवन लिया है। तो जीवन से सम्बंधित सारे रीतियों और रिवाजों को तो पूरा करना ही पड़ता है। उसमें विवाह है, संतानोत्पत्ति है और सामाजिक जीवन का निर्वहन भी। ये सब करके कोई पूर्ण रूप से सामाजिक प्राणी बन कर रह पाता है।
जब वयस्क होकर विवाह किया जाता है तो ज़ाहिर है कि बच्चे भी होंगे। उनका पालन पोषण किया जाएगा। पर पुराने समय से आज के समय में पालन पोषण में जमीन आसमान का बदलाव आ गया है। आज उसी पर बिंदुवार विस्तार से चर्चा करते हैं।
1● पुराने काल में 50 से 60 वर्ष पहले बच्चे आदेश आधारित सिद्धांत अर्थात instructions based theory के आधार पर पाले जाते थे। जिसमें घर का सबसे बड़ा मुखिया जैसे दादा, परदादा या कोई अन्य बुजुर्गवार जैसा आदेश पारित कर देते। परिवार में सभी उसी अनुसार रीतियों और नीतियों का पालन करते हैं और बच्चों की परवरिश भी उन्हीं आदेशों के आधार पर की जाती है। लेकिन इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता। कि पुरातन सोच के आधार पर पाले गए बच्चे भी बहुत योग्य साबित हुए।
2 ● फिर समय थोड़ा बदला। फिर आया विचार विमर्श आधारित सिद्धांत अर्थात discussion based theory....बड़े लोग अपनी बात रखते। अपनी राय बताते। फिर बच्चे उनसे विचार विमर्श करते। कि ऐसा क्यों है , और अगर ऐसा होए तो क्या समस्या है। मतलब किसी भी विचार को बड़े बच्चे मिल बैठकर सोचते फिर वह लागू किया जाता। जिसमें शायद थोड़ी थोड़ी दोनों की मर्ज़ी शामिल होती।
3● फिर समय थोड़ा और बदला फिर काल आया debate based theory अर्थात मतभेद आधारित सिद्धांत। जहां मां बाप या बड़ो ने कुछ बोला नहीं कि बच्चे बहस के लिए तैयार हो गए।
जैसे माता पिता ने कहा रोज सुबह सबसे पहले मंदिर में प्रणाम किया करो.....
बच्चे ने कहा - क्यों ... ??
मातापिता ने कहा कि...यहां भगवान हैं।
बच्चा बोला कि भगवान तो हर जगह हैं। तो मंदिर को ही प्रणाम क्यों...
मातापिता बोले....हम भी तो करते हैं।
बच्चा बोला तो आप करो ना मुझसे जबर्दस्ती क्यों करवा रहे।
मातापिता बोले - ईश्वर आशीर्वाद देंगे
बच्चा बोला- अगर प्रणाम नहीं करूंगा तो क्या फिर आशीर्वाद नहीं देंगे...और अगर प्रणाम करने पर ही आशीर्वाद दे रहे तो वह भगवान किस काम के....
ये है बहस पर आधारित मतभेद वाला सिद्धांत। जहां बच्चों में ये धारणा बनने लगी कि उन्हें अपने मातापिता और बड़ों से ज़्यादा पता है। ये नई पीढ़ी के लिए एक खतरे की घण्टी समान थी।
4● फिर समय और बदला और एक नए सिद्धांत का प्रादुर्भाव हुआ। Denial based theory अर्थात असहमति आधारित सिद्धांत। इस काल में बड़ों या मातापिता की किसी भी बात से सहमत होना जैसे खत्म सा होगा। कुछ भी कहा जाए तो उसे सिरे से नकारना बच्चों की आदत बनने लगी। मतलब सिर्फ अपनी अपनी ही करने में उन्हें खुशी मिलती। ये बच्चे और मातापिता के बीच कलह और क्लेश का कारण बनता गया। मातापिता को लगने लगा बच्चे हमारी सुन नहीं रहे।बच्चे को लगने लगा मातापिता अपनी शर्तों पर हमें जीने को बाध्य कर रहे।
जब बच्चा घर पर खुद को तिरस्कृत महसूस करने लगता तब वह बाहर की दुनिया में किसी अपने को ढूंढता है। जबकि बाहरी दुनिया में दुष्कर्मों वासनाओं की आंधियों में खो जाता है। तन उसका भविष्य कैसे अच्छा बन सकता है।
एक समय था जब बच्चा बड़ा होता तो मातापिता की छाती चौड़ी हो जाती। सुकून का अहसास होता था। पर आज जब बच्चा बड़ा हो रहा होता है। तब मांबाप को उसे खोने का डर सताने लगता है। क्योंकि तब बच्चा सिर्फ उनके कंट्रोल में नहीं रहता। आज जवान होते बच्चों को देखकर बाप की कमर झुक जाती है और मां की आंखों के नीचे काले घेरे पड़ जाते हैं।
यही सत्य है आज की पीढ़ी का । जिसे हर मातापिता झेल रहे। क्योंकि औलाद जो उन्होंने पैदा की वो उनकी कभी हो ही नहीं पा रही।
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