भेदभाव पूर्ण रवैये की शिकार स्त्री ..........!
जब कानून ही औरतों को सही न्याय नहीं दे सकता है तो हम पुरुष समाज से सहयोग और साथ की उम्मीद कैसे लगा सकते हैं ? केंद्र सरकार द्वारा अगस्त 2013 में एक विधेयक का मसौदा तैयार किया था। Assisted Reproductive Technologies (ARS ) नाम के इस विधेयक में सरोगेसी के द्वारा माँ बनने वाली औरत को मैटरनिटी लीव लेने का कोई प्रावधान नहीं है। यदि वह औरत कामकाजी है तो उसे सामान्य तौर पर अवकाश ले कर बच्चा पैदा करना पड़ेगा। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इस मामले में इसे मैटरनिटी लीव में शमिल करने का सुझाव दिया था पर उसे उच्च न्यायालयों ने ख़ारिज कर दिया। अब इस सन्दर्भ में सोचने वाली बात ये है कि ऐसा क्यों किया गया ? क्या कानून भी विवाह के मन्त्रों से संपन्न विवाह और फिर विवाहोपरांत पति पति के संबंधों से उत्पन्न संतान को ही जायज मानती है। यदि कोई अविवाहित स्त्री अपनी कोख किसी अन्य विवाहित जोड़े की संतान के लिए प्रयोग करती है तो वह मैटरनिटी लीव की हक़दार कैसे नहीं सकती है ? क्या उसके अविवाहित होने या किसी अन्य की संतान को कोख में रखने से शारीरिक रचना में या बच्चे के विकास में कोई बदलाव आएगा क्या ? एक औरत की कोख किसी भी संतान के लिए उसी तरह काम करेगी जो प्रक्रिया विधाता ने औरत का शरीर बनाते समय निर्धारित कर दी है। उस ने उस समय ये नहीं सोचा था कि बच्चा बिना विवाह के पैदा हुआ तो ये नियम इस तरह भिन्न होगा या यदि ये बच्चा किराये की कोख देने से होगा तो ये नियम लागू होगा। उसे अवश्य सोचना चाहिए था। क्योंकि ये समाज , ये कानूनी नियम , ये सरकार उसकी सादगी भरी पवित्र सोच को कुचलने के लिए पहले से मौजूद जो हैं। एक तरफ तो बड़ी बड़ी बातों से स्त्री की हिमायती बनतें हैं दूसरी तरफ उसकी नैसर्गिक गुणों की कद्र नहीं करते हैं। न ही उनको बनाये रखने में स्त्री की मदद करते हैं। इसे दोगलापन नहीं तो और क्या कहेंगे आप ही बताइये ?
स्त्री हमेशा से पुरुष और कानून के जरिए मात खाती आई है और आगे भी इसी तरह चलता रहेगा। ये दुनिया खासकर हिंदुस्तान कितनी भी तरक्की कर ले यहाँ महिलाओं के पक्ष में सिर्फ खोखले दावे ही सामने आते रहेंगे। जिन के लिए किसी भी समर्थन की आवश्यकता नहीं हैं। ईश्वरीय वरदान की अवहेलना करना तो कोई पुरुष प्रदत्त भारतीय कानून से सीखे। कैसे एक जघन्य बलात्कारी सिर्फ इस लिए सजा से बच सकता है क्योंकि वह 18 वर्ष पूरा होने में कुछ माह या कुछ दिन कम है। वह पीड़ा बेमानी है जो उस स्त्री ने सही। खैर उम्मीद पर दुनिया कायम है और ये भी अच्छा है कि औरत खुद को धीरे धीरे इतना सक्षम बना रही है कि उसे पुरुष के सहयोग की दरकार अब कम पड़ती है और हो सकता है की धीरे धीरे ख़त्म भी हो जाएगी। सरोगेसी का निर्णय भी तारीफ से भरा एक बड़ा कदम है जो कि एक स्त्री अपनी काबिलियत बाँटने के लिए कर रही है। जिस का फायदा किसी अन्य लाचार स्त्री को मिल रहा है।
जब कानून ही औरतों को सही न्याय नहीं दे सकता है तो हम पुरुष समाज से सहयोग और साथ की उम्मीद कैसे लगा सकते हैं ? केंद्र सरकार द्वारा अगस्त 2013 में एक विधेयक का मसौदा तैयार किया था। Assisted Reproductive Technologies (ARS ) नाम के इस विधेयक में सरोगेसी के द्वारा माँ बनने वाली औरत को मैटरनिटी लीव लेने का कोई प्रावधान नहीं है। यदि वह औरत कामकाजी है तो उसे सामान्य तौर पर अवकाश ले कर बच्चा पैदा करना पड़ेगा। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इस मामले में इसे मैटरनिटी लीव में शमिल करने का सुझाव दिया था पर उसे उच्च न्यायालयों ने ख़ारिज कर दिया। अब इस सन्दर्भ में सोचने वाली बात ये है कि ऐसा क्यों किया गया ? क्या कानून भी विवाह के मन्त्रों से संपन्न विवाह और फिर विवाहोपरांत पति पति के संबंधों से उत्पन्न संतान को ही जायज मानती है। यदि कोई अविवाहित स्त्री अपनी कोख किसी अन्य विवाहित जोड़े की संतान के लिए प्रयोग करती है तो वह मैटरनिटी लीव की हक़दार कैसे नहीं सकती है ? क्या उसके अविवाहित होने या किसी अन्य की संतान को कोख में रखने से शारीरिक रचना में या बच्चे के विकास में कोई बदलाव आएगा क्या ? एक औरत की कोख किसी भी संतान के लिए उसी तरह काम करेगी जो प्रक्रिया विधाता ने औरत का शरीर बनाते समय निर्धारित कर दी है। उस ने उस समय ये नहीं सोचा था कि बच्चा बिना विवाह के पैदा हुआ तो ये नियम इस तरह भिन्न होगा या यदि ये बच्चा किराये की कोख देने से होगा तो ये नियम लागू होगा। उसे अवश्य सोचना चाहिए था। क्योंकि ये समाज , ये कानूनी नियम , ये सरकार उसकी सादगी भरी पवित्र सोच को कुचलने के लिए पहले से मौजूद जो हैं। एक तरफ तो बड़ी बड़ी बातों से स्त्री की हिमायती बनतें हैं दूसरी तरफ उसकी नैसर्गिक गुणों की कद्र नहीं करते हैं। न ही उनको बनाये रखने में स्त्री की मदद करते हैं। इसे दोगलापन नहीं तो और क्या कहेंगे आप ही बताइये ?
स्त्री हमेशा से पुरुष और कानून के जरिए मात खाती आई है और आगे भी इसी तरह चलता रहेगा। ये दुनिया खासकर हिंदुस्तान कितनी भी तरक्की कर ले यहाँ महिलाओं के पक्ष में सिर्फ खोखले दावे ही सामने आते रहेंगे। जिन के लिए किसी भी समर्थन की आवश्यकता नहीं हैं। ईश्वरीय वरदान की अवहेलना करना तो कोई पुरुष प्रदत्त भारतीय कानून से सीखे। कैसे एक जघन्य बलात्कारी सिर्फ इस लिए सजा से बच सकता है क्योंकि वह 18 वर्ष पूरा होने में कुछ माह या कुछ दिन कम है। वह पीड़ा बेमानी है जो उस स्त्री ने सही। खैर उम्मीद पर दुनिया कायम है और ये भी अच्छा है कि औरत खुद को धीरे धीरे इतना सक्षम बना रही है कि उसे पुरुष के सहयोग की दरकार अब कम पड़ती है और हो सकता है की धीरे धीरे ख़त्म भी हो जाएगी। सरोगेसी का निर्णय भी तारीफ से भरा एक बड़ा कदम है जो कि एक स्त्री अपनी काबिलियत बाँटने के लिए कर रही है। जिस का फायदा किसी अन्य लाचार स्त्री को मिल रहा है।
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