धुल गयी उम्मीदों के निशान ढूंढता किसान ……… !

मैं जोधपुर राजस्थान की निवासी हूँ। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी राजस्थान के अनेकों किसानों ने अपने अपने खेतों में उम्मीदों की फसल बोई थी। इसी उम्मीद के चलते अनेकों सपने पुरे करने की आस भी लगा रखी थी। पर बेमौसम ओला वृष्टि और तूफानी बारिश ने  उनकी सारी उम्मीदों को नष्ट कर दिया। गेहूं , जीरा, सरसों , इसबगोल ,चना ,हरी सब्जियां आदि कितनी ही फसलें ख़राब हो चुकी हैं। अब किसान आत्महत्या पर मजबूर हो गए है। कल्पना कीजिये कि कोई माँ अपनी कोख में संतान को नौ माह रख कर सींचे और जब उसे गोद में खिलाने का समय आये तब वह मृत पैदा हो। क्या गुजरेगी उस माँ पर ?  यही हाल अब  किसानों का है। एक एक दिन जिस फसल को जानवरों , सूखे , और आग आदि से बचा कर पाला उसे बेमौसम की बारिश धो गयी। ये प्राकृतिक आपदा है। इस अप्रत्याशित आपदा का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता था। वैसे इस सत्य से कोई भी अनजान नहीं कि अन्न हम सबकी जरूरत है। देश चलाने वाली सरकार की भी। लेकिन इस जरूरत में कमी या नुकसान के लिए क्या उसने कभी भी चिंता जताई ? आज राजस्थान का किसान जिस मुहाने पर खड़ा है उसे किसी सहारे वाले हाथ की जरूरत है।  पर इन नेताओं को क्या पता कि  रोटी बनाने के लिए आटे की जरूरत पड़ती है  और आटा गेहूं से बनता है। और यही गेहूं महीनों खेतों में मेहनत करने के बाद पैदा होता है। रोज पका पकाया खाने वाले ये नेता ऐसी आपदाओं की राह तकते हैं।  जिससे इस आपदा के लिए आये funds से उनकी जेबें भर सकें। क्या सरकार के नुमाइंदे किसी किसान की आत्महत्या के बाद उसके घर पर उसकी मौत का मुआवजा देने जाएंगे ? जिस खेती की बदौलत राज्य की खाद्य आवश्यकता की पूर्ति होती है वह प्रभावित होने पर क्या सरकार का फ़र्ज़ नहीं बनता कि बिना मांगे ही जमीन और फसल का अनुपात लगा कर उस किसान के नुकसान की भरापूर्ति कर दी जाए। वह जीएगा तभी तो अगले साल नयी फसल के लिए तैयार होगा। इस के लिए व्यज्ञानिकों की एक आपदा जांच टीम बनाई जानी चाहिए जिसे standing order  मिला रहे कि आपदा के अगले ही दिन वह सर्वे के लिए निकल जाएँ और हर खेत पर नुकसान और क्षेत्र का सर्वे कर के क्षति का सही अनुमान लगाएं। जब तकलीफ हो तभी डॉक्टर सही इलाज कर सकता है।  बाद में उसे कितना भी तकलीफ समझाएं इलाज अनुमानतः ही होगा। सरकारी कार्यवाही तब प्रारम्भ होती है जब कोई किसान अपने नुकसान को अपनी नजरों और खेत से दूर कर चुका होता है। पर रोटी का मोल वह क्या जाने ,जिसे घर बैठे एयरकंडीशनर की ठंडी हवा में गरम गरम रोटियां आसानी से मिल जाती है। जीवन का मोल उनसे पूछिये जो अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ कर चले जाते हैं। चाहे वह किसी भी पार्टी का नेता हो सभी गले तक स्वपूर्ति में लिप्त हैं। पहले खुद का पेट भरो बाद में दूजे का सोचो। और कमाल की बात देखें की ईश्वर ने पेट भी कितना बड़ा दे दिया है कि चार रोटी खाने वाला पेट लाखों हजम करने के बाद भी उल्टी नहीं करता। बल्कि डकार ले कर हाजमे के चूर्ण के तौर पर बचा खुचा अपनी आने वाली पुश्तों को खिसका दिया जाता है।  
                           मारवाड़ी में कुछ कथाएँ प्रचलन में हैं ............. जीरौ जीव रौ बैरी ,मत बावो म्हारा परणिया। इस का अर्थ है जीरे की फसल जान की दुश्मन है इसे मत बो। एक अन्य कहावत है.... पाणत करती रा कड़ला घस गयो। अर्थात रात भर सिचाई करते करते पावँ में पहने चांदी का कड़े भी घिस गए। एक अन्य कहावत भी देखें , सींचते सींचते बैलन जोड़ी थाकि।  इस का अर्थ है कि खेत को सींचते हुए बैलों की जोड़ी भी थक गयी। ये सब यूँ ही नहीं है इन का तार्किक विश्लेषण करें तो पाएंगे कि ये अनुभव है यथार्थ का।  आज किसान अपनी बची हुई , सड़ी फसल को आग लगा कर उसमें फफूंद लगने और जमीन के लिए जहर बनने से बचा रहें हैं। सोचिये उन की मनः स्थिति।  ये हम और आप जैसे आम आदमी शायद महसूस कर लें पर हाय हाय ये नेता .......  सरकार भी क्या करेगी जब आपदा का पैसा कई हाथों से होकर ,लम्बे समय के बाद किसान तक पहुंचेगा तब वह ऊंट के मुँह में जीरे  के समान होगा। तभी तो 6 , 10 या 100 रुपये का चेक दे कर किसान की खिल्ली उड़ाई जाती है। बाकि का कहाँ गया , ये आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं। एक और सत्य से भी आप वाकिफ होंगे कि इस क्षतिपूर्ति के चलते बढ़ी महंगाई हम आम लोगों को ही प्रभावित करेगी। जिन कर घर मुफ्त में किराना आता हो उन्हें दाल चावल के भाव का क्या पता। भूख और बेचारगी का सामना खुद के बुते पर करता हुआ किसान कब तक अपने परिवार की रोजमर्रा की जरूरतें बाँध पायेगा ये तो पता नहीं पर नेताओं के घर पकते पकवानों की खुशबू उसको रोटी की कमी का अहसास तो कराती ही रहेगी। 

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