भीड़ का न्याय …………!
हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? ये कि जो जिम्मेदार है वह खुद कुछ करेगा नहीं और यदि उस के लिए कोई दूसरा कोई कदम उठाएगा तो वह दोषी बनाया दिया जायेगा। 5 मार्च की दिमापुर घटना ,फ़रवरी 14 में दिल्ली के एक छात्र के साथ की घटना या 13 मार्च को शाहगंज आगरा के एक युवक के साथ की घटना। इन सभी में एक समानता है वह ये कि इन घटनाओं का फैसला खुद जनता ने किया। आखिर सहनशक्ति की एक सीमा होती है। हम सभी जानते है की आज छेड़खानी या बदसलूकी इस लिए बढ़ती जा रही है क्योंकि इंसाफ लेने या देने की ढीली प्रक्रिया से हर कोई वाकिफ हो चूका है। ऊँची पहुँच , वकीलों की बेबुनियाद दलील , गवाह खरीदने और बेचने की प्रक्रिया , तारीख आगे करवा कर के केस लम्बा खींचते रहे का कार्य सभी से सब अवगत हैं। सभी ये जानते हैं कि अगर मुल्ज़िम पकड़वा भी दिया गया तो कानून कुछ बहुत ज्यादा नहीं कर पायेगा। इस लिए कुछ जगहों पर भीड़ ने खुद ही इंसाफ करने की ठान कर मुलजिम को सजा सुना दी। दिमापुर का वह युवक एक युवती के साथ कई दिनों तक जबरन बलात्कार का दोषी था। पुलिस ने गिरफ्तार किया पर भीड़ ये जानती थी की आगे कुछ भी नहीं होने वाला। जब उबर बलात्कार काण्ड , निर्भया कांड जैसे आरोपी को वकील अपनी दलीलों से बचाव दिला सकते है तो यहाँ भी यही हो सकता था इस लिए उन्होंने उस युवक को जेल से अगवा कर के सरेआम उसकी हत्या कर दी। दूसरी उल्लेखित घटनाओं में भी ऐसा ही हुआ। अब इन मामलों में जनता का विश्वास कानून पर से उठ गया है। कानून की लम्बी प्रक्रिया सिर्फ पीड़ित की तकलीफ बढ़ने के अलावा कुछ नहीं करती। बारबार अदालत में जाकर उससे वही गंदे सवाल पूछना जिनसे वह पीछा छुड़ाना चाह रही हो। हर बार यही तो देखने को मिलता है। हालाँकि इंसाफ करने का ये तरीका गलत है पर अब कोई और चारा बचा है क्या ? रोजगार की बात न्यायसंगत है पर गलत का साथ देने की बात इन वकीलों को हजम कैसे होती होगी। क्या सिर्फ पैसा ही सब कुछ है। उनकी अंतरात्मा क्या सही गलत का फर्क बता कर दोषी का साथ न देने के लिए नहीं रोकती। इन्ही की वजह से आज कानून को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इस लिए मेरी नजरों में अब ऐसे ही इंसाफ होना चाहिए। तभी डर और दहशत गलत काम करने से रोकेगी। क्योंकि भीड़ का कोई मक़सद नहीं होता। और उससे बचने का रास्ता भी नहीं हैं। इस लिए अब भीड़ के न्याय को स्वीकार करना चाहिए।
हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? ये कि जो जिम्मेदार है वह खुद कुछ करेगा नहीं और यदि उस के लिए कोई दूसरा कोई कदम उठाएगा तो वह दोषी बनाया दिया जायेगा। 5 मार्च की दिमापुर घटना ,फ़रवरी 14 में दिल्ली के एक छात्र के साथ की घटना या 13 मार्च को शाहगंज आगरा के एक युवक के साथ की घटना। इन सभी में एक समानता है वह ये कि इन घटनाओं का फैसला खुद जनता ने किया। आखिर सहनशक्ति की एक सीमा होती है। हम सभी जानते है की आज छेड़खानी या बदसलूकी इस लिए बढ़ती जा रही है क्योंकि इंसाफ लेने या देने की ढीली प्रक्रिया से हर कोई वाकिफ हो चूका है। ऊँची पहुँच , वकीलों की बेबुनियाद दलील , गवाह खरीदने और बेचने की प्रक्रिया , तारीख आगे करवा कर के केस लम्बा खींचते रहे का कार्य सभी से सब अवगत हैं। सभी ये जानते हैं कि अगर मुल्ज़िम पकड़वा भी दिया गया तो कानून कुछ बहुत ज्यादा नहीं कर पायेगा। इस लिए कुछ जगहों पर भीड़ ने खुद ही इंसाफ करने की ठान कर मुलजिम को सजा सुना दी। दिमापुर का वह युवक एक युवती के साथ कई दिनों तक जबरन बलात्कार का दोषी था। पुलिस ने गिरफ्तार किया पर भीड़ ये जानती थी की आगे कुछ भी नहीं होने वाला। जब उबर बलात्कार काण्ड , निर्भया कांड जैसे आरोपी को वकील अपनी दलीलों से बचाव दिला सकते है तो यहाँ भी यही हो सकता था इस लिए उन्होंने उस युवक को जेल से अगवा कर के सरेआम उसकी हत्या कर दी। दूसरी उल्लेखित घटनाओं में भी ऐसा ही हुआ। अब इन मामलों में जनता का विश्वास कानून पर से उठ गया है। कानून की लम्बी प्रक्रिया सिर्फ पीड़ित की तकलीफ बढ़ने के अलावा कुछ नहीं करती। बारबार अदालत में जाकर उससे वही गंदे सवाल पूछना जिनसे वह पीछा छुड़ाना चाह रही हो। हर बार यही तो देखने को मिलता है। हालाँकि इंसाफ करने का ये तरीका गलत है पर अब कोई और चारा बचा है क्या ? रोजगार की बात न्यायसंगत है पर गलत का साथ देने की बात इन वकीलों को हजम कैसे होती होगी। क्या सिर्फ पैसा ही सब कुछ है। उनकी अंतरात्मा क्या सही गलत का फर्क बता कर दोषी का साथ न देने के लिए नहीं रोकती। इन्ही की वजह से आज कानून को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इस लिए मेरी नजरों में अब ऐसे ही इंसाफ होना चाहिए। तभी डर और दहशत गलत काम करने से रोकेगी। क्योंकि भीड़ का कोई मक़सद नहीं होता। और उससे बचने का रास्ता भी नहीं हैं। इस लिए अब भीड़ के न्याय को स्वीकार करना चाहिए।
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