झूठा सपना सा ये जीवन ..........!

क्योँ हर बार मन को लगा ,
एक झूठा सा सपना ये जीवन।
फिर भी हमने इसे ही चाहा ,
पर बेगाना रहा अपना ये जीवन।
           समझ नहीं पाये की कब ,
           ये मुख मोड़ कर छुप जाता है।
           हम लाख पुकारें पर फिर भी ,
           नहीं पास हमारे आता है।
हम जितना भी इसे अपनाएं ,
परायों सा बन कर रह जाता है।
अपनी मर्जी से हमें चला कर ,
अपनी-अपनी कह जाता है।
            हम चाहें तो भी करे वही ,
            जो इसकी इच्छा में आता है।
            हमारे दिन रातों को हमेशा ,
            अपनी शर्तों पर चलाता है। 
सब जानबूझ कर करता है ,
फिर भी अनजान दिखाता है। 
अपनी शख्सियत की खासियत,
हर पल हमसे ही छुपाता है।   
            आगे क्या हो कुछ पता नहीं ,
             कहने को जीवन अपना है। 
             हम लाख सोचतें रहें भविष्य,
            अपने लिए तो बस वो सपना है। 
फिर भी हम इसके बंदी हैं ,
जिएंगे तो इसके माफिक। 
ग़म ,ख़ुशी या चिंता हो ,
सब सहेंगे इसके खातिर। 
            सोचो मत सब, छोड़ दो अब,
            जो होता है बस वो होने दो। 
             जीवन को जीना चाहत है ,
            खुश होकर, उसमे खोने दो।   

            






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