क्रेडिट और डेबिट का बहीखाता !
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हम सभी के पास अपने अपने बैंक अकाउंट हैं। उन का लेखा जोखा रखने की आदत इसलिए हैं कि उन्ही से हमारी सारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। हम अपना दैनिक और मासिक बजट भी उसी के हिसाब से बनाते हैं कि कही ऐसा न हो की आमदनी चवन्नी , खर्चा रुपैया वाला मामला हो जाए। ये हमारे जीवन की अहम् जरूरतों में से एक है। बैंक अकाउंट सँभालने की इसी प्रक्रिया को आम भाषा में क्रेडिट और डेबिट कहते हैं। क्रेडिट अर्थात पैसे कम होने पर और डाल कर उसे निश्चित योगराशि तक रखना , और डेबिट मतलब उसमें से ही खर्च के लिए पुनः निकालना। ये प्रक्रिया सतत चलती है।
अब इसे जीवन गुणांक के नजरिये से देखें की हम अपने व्यव्हार के अकाउंट बैलेंस को किस तरह सँभालते हैं। समय , परिस्थिति और दिनचर्या जैसे अन्य कई कारण हमारे व्यव्हार में बहुत से नये जोड़ - घटाने करते रहतें हैं। जो की बाद में आदत में बदल जातें हैं। यही आदतें फिर हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगती हैं। इस लिए जो व्यव्हार या आदत उचित नहीं प्रतीत हो रहा हो क्या कभी हम उनको अपने व्यव्हार से डेबिट करने की कोशिश करतें हैं ? और उनके स्थान पर कुछ नया व्यव्हार या आदतें क्रेडिट करें जो हमारे जीवन की दिशा दशा बदलने की क्षमता रहते हों। जिस तरह समय समय पर बैंक के खाते की रखरखाव आवश्यक जान पड़ती है उसी तरह व्यवहार का खाता भी बेफजूल आदतों से सराबोर हो जाए तो माहवारी नहीं तो कम से कम छमाही स्तर पर डेबिट का नियम बनाया जाना चाहिये। हम बहुत सी आदतों से बने हुए एक बैंक का सामान हैं। जिसमें रखा हमारा व्यवहार दूसरे को खुशी या दुःख देने , अपनी स्थिति सँभालने या बिगाड़ने , जीवन चक्र को सुगमता या जटिलता से चलाने , खुद को संतुष्ट रखने या फिर विचलित बनाने में सहायता देता है। जिस प्रकार बैंक में रखे हुए धन का उपयोग सार्थक हो या निरर्थक ये हम पर ही निर्भर करता है। उसी तरह व्यवहार का अकाउंट बैलेंस भी छमाही चेक करके डेबिट और क्रेडिट की व्यवस्था बनाये रखनी चाहिए। ये आवश्यक है एक सफल और खुशनुमा जीवन जीने के लिए।
अब यह सोचें कि डेबिट और क्रेडिट करने सम्बन्धी आदतों और व्यव्हार को परखा कैसे जाएगा और उनका वर्गीकरण किस आधार पर करें ? हम जिस परिवार ,समाज में रहते हैं वहां सभी की अपनी अपनी रुचियाँ होती हैं पर समुदायिकता और एकता बनाये रखने के लिए हम बहुत कुछ ऐसा करने को बाध्य हो जातें हैं जो हमारे व्यव्हार में शामिल नहीं होता। यहीं क्रेडिट की आवश्यकता पड़ती हैं। उन क्रियाकलापों को दिनचर्या का हिस्सा बनाए के लिए व्यव्हार में क्रेडिट करें जो आप के अपने को ख़ुशी दे कर आप को उनके और करीब लातें हैं। साथ ही यदि कोई आदत आपको या परिवार को क्षति पहुंचा रही हो उसे डेबिट की श्रेणी में रख कर कार्यवाही करें। चुनाव हमें खुद करना हैं। अपनी ख़ुशी , सेहत , स्वास्थ्य , वैभव सभी कुछ इसी क्रेडिट - डेबिट व्यवस्था की प्रक्रिया पर निर्भर हैं। आजमा कर जीवन बदला सकता है।

हम सभी के पास अपने अपने बैंक अकाउंट हैं। उन का लेखा जोखा रखने की आदत इसलिए हैं कि उन्ही से हमारी सारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। हम अपना दैनिक और मासिक बजट भी उसी के हिसाब से बनाते हैं कि कही ऐसा न हो की आमदनी चवन्नी , खर्चा रुपैया वाला मामला हो जाए। ये हमारे जीवन की अहम् जरूरतों में से एक है। बैंक अकाउंट सँभालने की इसी प्रक्रिया को आम भाषा में क्रेडिट और डेबिट कहते हैं। क्रेडिट अर्थात पैसे कम होने पर और डाल कर उसे निश्चित योगराशि तक रखना , और डेबिट मतलब उसमें से ही खर्च के लिए पुनः निकालना। ये प्रक्रिया सतत चलती है।
अब इसे जीवन गुणांक के नजरिये से देखें की हम अपने व्यव्हार के अकाउंट बैलेंस को किस तरह सँभालते हैं। समय , परिस्थिति और दिनचर्या जैसे अन्य कई कारण हमारे व्यव्हार में बहुत से नये जोड़ - घटाने करते रहतें हैं। जो की बाद में आदत में बदल जातें हैं। यही आदतें फिर हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगती हैं। इस लिए जो व्यव्हार या आदत उचित नहीं प्रतीत हो रहा हो क्या कभी हम उनको अपने व्यव्हार से डेबिट करने की कोशिश करतें हैं ? और उनके स्थान पर कुछ नया व्यव्हार या आदतें क्रेडिट करें जो हमारे जीवन की दिशा दशा बदलने की क्षमता रहते हों। जिस तरह समय समय पर बैंक के खाते की रखरखाव आवश्यक जान पड़ती है उसी तरह व्यवहार का खाता भी बेफजूल आदतों से सराबोर हो जाए तो माहवारी नहीं तो कम से कम छमाही स्तर पर डेबिट का नियम बनाया जाना चाहिये। हम बहुत सी आदतों से बने हुए एक बैंक का सामान हैं। जिसमें रखा हमारा व्यवहार दूसरे को खुशी या दुःख देने , अपनी स्थिति सँभालने या बिगाड़ने , जीवन चक्र को सुगमता या जटिलता से चलाने , खुद को संतुष्ट रखने या फिर विचलित बनाने में सहायता देता है। जिस प्रकार बैंक में रखे हुए धन का उपयोग सार्थक हो या निरर्थक ये हम पर ही निर्भर करता है। उसी तरह व्यवहार का अकाउंट बैलेंस भी छमाही चेक करके डेबिट और क्रेडिट की व्यवस्था बनाये रखनी चाहिए। ये आवश्यक है एक सफल और खुशनुमा जीवन जीने के लिए।
अब यह सोचें कि डेबिट और क्रेडिट करने सम्बन्धी आदतों और व्यव्हार को परखा कैसे जाएगा और उनका वर्गीकरण किस आधार पर करें ? हम जिस परिवार ,समाज में रहते हैं वहां सभी की अपनी अपनी रुचियाँ होती हैं पर समुदायिकता और एकता बनाये रखने के लिए हम बहुत कुछ ऐसा करने को बाध्य हो जातें हैं जो हमारे व्यव्हार में शामिल नहीं होता। यहीं क्रेडिट की आवश्यकता पड़ती हैं। उन क्रियाकलापों को दिनचर्या का हिस्सा बनाए के लिए व्यव्हार में क्रेडिट करें जो आप के अपने को ख़ुशी दे कर आप को उनके और करीब लातें हैं। साथ ही यदि कोई आदत आपको या परिवार को क्षति पहुंचा रही हो उसे डेबिट की श्रेणी में रख कर कार्यवाही करें। चुनाव हमें खुद करना हैं। अपनी ख़ुशी , सेहत , स्वास्थ्य , वैभव सभी कुछ इसी क्रेडिट - डेबिट व्यवस्था की प्रक्रिया पर निर्भर हैं। आजमा कर जीवन बदला सकता है।
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