तकनीकी उन्नयन(up gradation) से उपजी हैवानियत (licentiousness)!
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क्या वाकई अब हैवानियत , इंसानियत पर इस कदर हावी हो गयी है कि अच्छा बुरा या नैतिक अनैतिक का भेद ख़त्म हो गया है। हम तकनिकी रूप से निरंतर आगे बढ़ते ही जा रहें है। लेकिन स्वाभाविक और सामाजिक रूप से यह एक घातक परिणाम का द्योतक है। आज वह हर चीज , बात , जानकारी और दृश्य दर्शन हमारी पहुँच में है जो कि एक समय , अपने उचित समय पर ही सामने आता था।
समाचार पढ़ा कि एक मजदूर वर्ग की चार साल की मासूम अपनी दादी के साथ सो रही थी। रात को दादी उठ कर लघुशंका (urine) के लिए गयी तभी कोई उसे उठा कर ले गया और ले जा कर क्या किया यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं। समझने की बात है समझ आ गयी होगी । इस घटना के साथ दो तीन प्रश्न उठने जायज है। पहला ये कि देहाड़ी (daily wage) पर काम करने मामूली मजदूर कहाँ से ऐसा पक्का घर लाये जिसके दरवाजों के भीतर उसकी बेटीयां बहु सुरक्षित रहे ? दूसरा साक्षरताहीन समाज के लोगों के बीच रहने पर सभी से परिपक्व समझ की उम्मीद कैसे रखा जाए ? तीसरा मनोरंजन के लिए आसानी से उपलब्ध होने वाले टेलीविजन कनेक्शन को एक साथ उसी झुग्गी में बैठ कर पुरे परिवार में बच्चों के साथ देखे जाने से अच्छे या बुरे को कैसे वर्गीकृत किया जाए ? और सबसे अहम् सवाल कि चार वर्ष की बच्ची से साथ कुकृत्य करने वाला जिस संतुष्टि के लिए यह सब कर रहा है क्या वह संभव है ?
ये सवाल जरूरी हैं क्योंकि हमारे समाज का 40 से 45 % तबका मजदूर वर्ग ही है। जो रोज दिहाड़ी से अपना अपना घर चला रहें हैं। उनकी बच्चियाँ सुरक्षित नहीं है। उनके काम पर जाने के बाद , अकेले घर के आस पास खेलने के समय , पास की किराने की दुकान तक जाने के समय सभी जगह वह अपनी बच्चियों की सुरक्षा कैसे करेंगे ? ये एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब हम में से किसी के पास नहीं है। मेरे पास भी नहीं , हाँ उस दर्द और चीख का अहसास है ,जो उस बच्ची ने सहा।

क्या वाकई अब हैवानियत , इंसानियत पर इस कदर हावी हो गयी है कि अच्छा बुरा या नैतिक अनैतिक का भेद ख़त्म हो गया है। हम तकनिकी रूप से निरंतर आगे बढ़ते ही जा रहें है। लेकिन स्वाभाविक और सामाजिक रूप से यह एक घातक परिणाम का द्योतक है। आज वह हर चीज , बात , जानकारी और दृश्य दर्शन हमारी पहुँच में है जो कि एक समय , अपने उचित समय पर ही सामने आता था।
समाचार पढ़ा कि एक मजदूर वर्ग की चार साल की मासूम अपनी दादी के साथ सो रही थी। रात को दादी उठ कर लघुशंका (urine) के लिए गयी तभी कोई उसे उठा कर ले गया और ले जा कर क्या किया यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं। समझने की बात है समझ आ गयी होगी । इस घटना के साथ दो तीन प्रश्न उठने जायज है। पहला ये कि देहाड़ी (daily wage) पर काम करने मामूली मजदूर कहाँ से ऐसा पक्का घर लाये जिसके दरवाजों के भीतर उसकी बेटीयां बहु सुरक्षित रहे ? दूसरा साक्षरताहीन समाज के लोगों के बीच रहने पर सभी से परिपक्व समझ की उम्मीद कैसे रखा जाए ? तीसरा मनोरंजन के लिए आसानी से उपलब्ध होने वाले टेलीविजन कनेक्शन को एक साथ उसी झुग्गी में बैठ कर पुरे परिवार में बच्चों के साथ देखे जाने से अच्छे या बुरे को कैसे वर्गीकृत किया जाए ? और सबसे अहम् सवाल कि चार वर्ष की बच्ची से साथ कुकृत्य करने वाला जिस संतुष्टि के लिए यह सब कर रहा है क्या वह संभव है ?
ये सवाल जरूरी हैं क्योंकि हमारे समाज का 40 से 45 % तबका मजदूर वर्ग ही है। जो रोज दिहाड़ी से अपना अपना घर चला रहें हैं। उनकी बच्चियाँ सुरक्षित नहीं है। उनके काम पर जाने के बाद , अकेले घर के आस पास खेलने के समय , पास की किराने की दुकान तक जाने के समय सभी जगह वह अपनी बच्चियों की सुरक्षा कैसे करेंगे ? ये एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब हम में से किसी के पास नहीं है। मेरे पास भी नहीं , हाँ उस दर्द और चीख का अहसास है ,जो उस बच्ची ने सहा।
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