असंभव बदलाव से संभव पहचान ।
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जब कभी हम सुबह सोकर उठते हैं हम अपनी पहचान से वाकिफ होतें हैं ।जैसे ही हम अपनी रोज की दिनचर्या शुरू करके दुनिया के जंजालों में कूदते हैं । हम वो बन जाते हैं जो हमसे बाहरी दुनिया उम्मीद करती है । ऐसा क्यों है कभी ये जानने की कोशिश की है ? पहले तो दुनिया की सबसे बड़ी पहेली है कि इस दुनिया में मैं क्या हूँ ? वो जो मैं बनना चाहता था या वो जो ये दुनिया मुझे बनाना चाहती है ? मैं क्यों सबके बीच जाकर एक दम से उनकी तरह हो जाता हूँ और कई गुना बदल जाता हूँ ? क्या मेरी खुद की पहचान से मेरी छवि धूमिल होती है इसीलिए मैं वो बन जाता हूँ जो दूसरे चाहते हैं  ? क्या मेरा रहन सहन , आदतें , पहनावा या कामकाज दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार होना इतना जरूरी है  ? क्या कभी सब के बीच ये साबित करने की कोशिश की कि न तो मैं अजीब हूँ , न मैं झक्की हूँ , न ही डरावना हूँ , मेरा सच यही है कि मैं तुम सब से थोड़ा सा अलग हूँ ।  
                               असंभव पहचान बनाने के लिए ये जरूरी है कि संभव बदलाव पर भरोसा करना सीखा जाए । ऐसा होने दो कि अपने दिमाग को छलनी की तरह बना लो आते जाते अनुपयुक्त विचारों को उसमें पानी की तरह छन कर निकल जाने दो । बीते कल को अपना आधार मत बनने दो । कल कुछ और थे,  आज की माँग कुछ और है । इस लिए हर उस चीज को  जिंदादिली के काबिल बनायें जो अपने सामने से गुजर रही हो । बदलाव बंधन नही होना चाहिए ।समस्याओं के जादुई समाधान के लिए जादू पर भरोसा करना मत छोड़ो । चमत्कार और जादू दोनों ही सच हैं। वो जादू कहीं और नहीं हमारे खुद के अंदर है । दूसरों को उसका हिस्सा बनाने में सिर्फ भागीदारी होने तक ही सीमित रखो । कर्ता धर्ता तुम खुद ही बने रहो ।  तभी सही मायनों में उस जादू के प्रभाव से तुम्हारी छवि उज्जवल होगी। 
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