रोटी

रोटी :

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हम चालीस - पचास बरस पुराने लोगों के लिए

रोटी बहुत आदर की चीज थी और आज भी है

हमारे पूर्वज रोटी खाने से पहले उसे प्रणाम करते थे। 

क्योंकि वो उनकी ऊर्जा का स्रोत होती थी। 


अमूमन रोटी किसी भी हाल में खाई जा सकती है

खेत की मेड़ पर मिट्टी भरे हाथों से

हथेली पर रख, पैर फैला लाल चटनी के साथ

मुक्का मार प्याज़ मिर्च के साथ,

लस्सी या दूध में डूबोकर,

सादी नमक-मिर्च बुरक,

थोड़ा ज्यादा घी लगाकर,

मलाई में मीठा, चीनी मिलाकर,

और गुड़ घी के साथ भी

और कुछ ना भी हो तो हरी मिर्च के साथ भी

भूख लगी हो तो रोटी हर हाल में स्वाद लगती है

माँ तो हमेशा कहती है....“रोटियाँ बिना पेट ना भरै।”


बचपन में भी तो यूँ खाते थे

जब खूब खेलकर लौटते थे

आते ही रसोई में रोटी का डिब्बा टटोटले थे

क्या पता कल की कोई बासी ही मिल जाये

जब भूख से हाल बुरा होए तो

कच्ची सब्जी पकने तक का सब्र न होता था

इसीलिए माँग लेते थे चाची-ताई से भी कि 

“डिब्बे में कल की कोई बासी रोटी बची है क्या ?”

और लेकर रोटी बैठ जाते थे कौओं की तरह

छत्त की मुंडेरों पर चुगने...!


कितनी बार तो बहन-भाई लड़ भी जाते थे

कभी पहली रोटी के लिए और

कभी आखरी बची रोटी के लिए।


आधी छुट्टी में दादी रोज हलवा बनाती थी और

उसी हलवे को रोटी में लपेट खाने का सुख ही कुछ और था

मां जब रोटी में सब्जी भरकर चोंगा बनाकर देती थी

तो उसमें स्वाद बढ़ाने को थोड़ा अचार भी डाल देती थी

बस उस स्वाद का मुकाबला कोई और क्या करेगा

कभी कभी तो मक्खन लपेटी रोटी हाथ में लेकर

गली में निकलते थे तो खुद को अमीर समझते थे


कितनी सुविधा की चीज थी रोटी

कहीं भी, कभी भी उपलब्ध थी

परिवार, पड़ोस, चाचा, बाबा की थाली में

बहुत सस्ते प्रबंध थे भूख के।


आज बच्चों को देखो 

बस में, ट्रेन में, ऑटो में या घर से बाहर किसी भी जगह

चिप्स, बर्गर, पिज़्ज़ा कोक जैसी खाने की कई चीज

उनके हाथ में होती है पर 

बस नहीं होती तो वो है रोटी....

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