एक पाषाण शिला ………!
मैं क्यों ऐसी बन गयी,
सब कुछ बेदम सह गयी।
जीवन बेसुरा सा ही सही,
फिर भी एक कविता की तरह,
मिठास बन कर बह गयी।
अंदर से टूट कर भी क्यों,
बाहर से खंडित न दिखी।
कितनी भी बार गिर कर,
लहूलुहान हुई ,चकनाचूर हुई,
फिर भी रक्त रंजित न दिखी।
सब साथ भी हो तो भी,
अकेलेपन का क़र्ज़ भर्ती रही।
सब के लिए खुशियों का खजाना,
भर भर कर सहेजती,
खुद तिल तिल मरती रही।
अपनी पीड़ा को छिपा कर,
मुस्कान का उपहार बांटती रही।
सब के पीठ पीछे आंसुओं की,
पोटली से उनके दर्द की,
सकारात्मकता छाँटती रही।
मैं बेरंग जी गयी यूँ ही पर,
सब कुछ रंगीन कर दिया।
खुशियों का गुलाल बिखेरा,
पर दयनीयता से डरी रही,
जैसे गुनाह संगीन कर दिया।
अब तो आदत सी हो गयी ,
जीना और जीते रहने देने की।
अब क्या बदलेगा यहाँ ,
जिस की उम्मीद करूँ ,
आदत डाल ली,अनचाहा लेने की।
मैं क्यों ऐसी बन गयी,
सब कुछ बेदम सह गयी।
जीवन बेसुरा सा ही सही,
फिर भी एक कविता की तरह,
मिठास बन कर बह गयी।
अंदर से टूट कर भी क्यों,
बाहर से खंडित न दिखी।
कितनी भी बार गिर कर,
लहूलुहान हुई ,चकनाचूर हुई,
फिर भी रक्त रंजित न दिखी।
सब साथ भी हो तो भी,
अकेलेपन का क़र्ज़ भर्ती रही।
सब के लिए खुशियों का खजाना,
भर भर कर सहेजती,
खुद तिल तिल मरती रही।
अपनी पीड़ा को छिपा कर,
मुस्कान का उपहार बांटती रही।
सब के पीठ पीछे आंसुओं की,
पोटली से उनके दर्द की,
सकारात्मकता छाँटती रही।
मैं बेरंग जी गयी यूँ ही पर,
सब कुछ रंगीन कर दिया।
खुशियों का गुलाल बिखेरा,
पर दयनीयता से डरी रही,
जैसे गुनाह संगीन कर दिया।
अब तो आदत सी हो गयी ,
जीना और जीते रहने देने की।
अब क्या बदलेगा यहाँ ,
जिस की उम्मीद करूँ ,
आदत डाल ली,अनचाहा लेने की।
Comments
Post a Comment