सार्थक उन्नत्ति………!
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किसी के भी जीवन में तीन तथ्यों का महत्वपूर्ण स्थान होता है और उन तीनों को हम अपने जीवन में किस तरह समाहित करते हैं। इस पर जीवन का आगाज ,विकास , उत्थान और समाधान निहित होता है। वह तीनों तथ्य है प्रतियोगिता , प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंदिता।
सब से पहले प्रतियोगिता का विश्लेषण ,जीवन के विकास के साथ ही हम प्रतियोगिता से परिचित हो जाते हैं। अपनी संतान को दूसरी संतान से बेहतर दिखाने की ललक के चलते बच्चे के अंदर ये चाह विकसित की जाती है कि वह दूसरों से ऊँचा प्रदर्शन रखने का प्रयास करें। इस के लिए अब बच्चे की उम्र भी मायने नहीं रखती क्योंकि छोटी ही उम्र से ही उसे वह सब कुछ करने के लिए प्रेरित किया जाता है जिस के लिए उस वक्त उसकी उम्र जवाबदेह नहीं है। अभिभावक ये भूल जाते है कि शरीर के साथ दिमाग के विकास भी मात्रा भी तय है। अपनी क्षमता और रचनात्मकता का उपयोग वह अपनी सीमाओं में ही रहकर कर सकता है। फिर भी हमारी अपेक्षा पर खरे उतरने के लिए उसके प्रयास उसे कई बार हताश और कुंठित कर देते हैं।
अब दूसरे तथ्य प्रतिस्पर्धा को लीजिये। एक निश्चित उम्र में पहुँचने के बाद हर बच्चे को अपनी काबिलियत का स्तर सब से ऊँचा रखने और प्रोत्साहन का एक मात्र अधिकारी होने की चाह प्रतिस्पर्धी बना देती है। अपने नियत क्षेत्र में उस की ये कोशिश रहती है कि जो सबसे बेहतर स्थान है उस पर हमेशा वही काबिज रहे। ये भावना आज हम अभिभावक भी अपने बच्चे में डालते रहते हैं कि जो पीछे हुआ उससे प्रगति और उन्नति दूर हो जाती है। इस लिए हमेशा आगे रहना और सिर्फ खुद के लिए प्रयास करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। ये प्रतिस्पर्धा यदि सकारात्मक हो तो किसी के भी जीवन की दिशा बदल सकती है। इसी के सहारे एक बच्चा खुद को बेहतर और बेहतर रखने के लिए प्रयासरत बना रहता है। परन्तु यही भावना जब विरोध में बदल जाती है तब प्रतिद्वंदिता बन जाती है।
अब प्रतिद्वंदिता को समझिए। जब कभी भी खुद को आगे दिखने की चाह में हम किसी दूसरे को नीचे करने का काम करने लगे वह प्रतिद्वंदिता कहलाती है। वह कहते हैं न कि अपनी लकीर को लम्बा रखने के लिए अगर दूसरे की लकीर को मिटाने का प्रयास हो तो ये प्रतिद्वंदिता है। प्रतिद्वंदिता में इंसान सिर्फ अपने लिए अच्छा सोचने के चक्कर में दूसरे का बुरा करने को तैयार हो जाता है। ये भावना घातक होती है। इस लिए कभी भी इंसान को इस स्तर तक नहीं पहुंचना चाहिए। आगे बढ़ने की चाह एक अच्छी बात है। परन्तु उसके लिए किसी दूसरे की हानि का ख्याल भी अच्छी बात नहीं। सब को अपने अपने स्थान को बनाये रखने के लिए सिर्फ अपने प्रयास पर ध्यान देना चाहिए। यही सही मायनों में जीवन के चलते रहने का सत्य है।
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किसी के भी जीवन में तीन तथ्यों का महत्वपूर्ण स्थान होता है और उन तीनों को हम अपने जीवन में किस तरह समाहित करते हैं। इस पर जीवन का आगाज ,विकास , उत्थान और समाधान निहित होता है। वह तीनों तथ्य है प्रतियोगिता , प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंदिता।
सब से पहले प्रतियोगिता का विश्लेषण ,जीवन के विकास के साथ ही हम प्रतियोगिता से परिचित हो जाते हैं। अपनी संतान को दूसरी संतान से बेहतर दिखाने की ललक के चलते बच्चे के अंदर ये चाह विकसित की जाती है कि वह दूसरों से ऊँचा प्रदर्शन रखने का प्रयास करें। इस के लिए अब बच्चे की उम्र भी मायने नहीं रखती क्योंकि छोटी ही उम्र से ही उसे वह सब कुछ करने के लिए प्रेरित किया जाता है जिस के लिए उस वक्त उसकी उम्र जवाबदेह नहीं है। अभिभावक ये भूल जाते है कि शरीर के साथ दिमाग के विकास भी मात्रा भी तय है। अपनी क्षमता और रचनात्मकता का उपयोग वह अपनी सीमाओं में ही रहकर कर सकता है। फिर भी हमारी अपेक्षा पर खरे उतरने के लिए उसके प्रयास उसे कई बार हताश और कुंठित कर देते हैं।
अब दूसरे तथ्य प्रतिस्पर्धा को लीजिये। एक निश्चित उम्र में पहुँचने के बाद हर बच्चे को अपनी काबिलियत का स्तर सब से ऊँचा रखने और प्रोत्साहन का एक मात्र अधिकारी होने की चाह प्रतिस्पर्धी बना देती है। अपने नियत क्षेत्र में उस की ये कोशिश रहती है कि जो सबसे बेहतर स्थान है उस पर हमेशा वही काबिज रहे। ये भावना आज हम अभिभावक भी अपने बच्चे में डालते रहते हैं कि जो पीछे हुआ उससे प्रगति और उन्नति दूर हो जाती है। इस लिए हमेशा आगे रहना और सिर्फ खुद के लिए प्रयास करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। ये प्रतिस्पर्धा यदि सकारात्मक हो तो किसी के भी जीवन की दिशा बदल सकती है। इसी के सहारे एक बच्चा खुद को बेहतर और बेहतर रखने के लिए प्रयासरत बना रहता है। परन्तु यही भावना जब विरोध में बदल जाती है तब प्रतिद्वंदिता बन जाती है।
अब प्रतिद्वंदिता को समझिए। जब कभी भी खुद को आगे दिखने की चाह में हम किसी दूसरे को नीचे करने का काम करने लगे वह प्रतिद्वंदिता कहलाती है। वह कहते हैं न कि अपनी लकीर को लम्बा रखने के लिए अगर दूसरे की लकीर को मिटाने का प्रयास हो तो ये प्रतिद्वंदिता है। प्रतिद्वंदिता में इंसान सिर्फ अपने लिए अच्छा सोचने के चक्कर में दूसरे का बुरा करने को तैयार हो जाता है। ये भावना घातक होती है। इस लिए कभी भी इंसान को इस स्तर तक नहीं पहुंचना चाहिए। आगे बढ़ने की चाह एक अच्छी बात है। परन्तु उसके लिए किसी दूसरे की हानि का ख्याल भी अच्छी बात नहीं। सब को अपने अपने स्थान को बनाये रखने के लिए सिर्फ अपने प्रयास पर ध्यान देना चाहिए। यही सही मायनों में जीवन के चलते रहने का सत्य है।
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