ठहरी सोच से खाई चोट …………!
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जब भी कभी अख़बार की सुर्ख़ियों में किसी देश या शहर का नाम चमकता हुआ आता है। मन में उम्मीद जागने लगने लगती है कि काश हमारे शहर का भी नाम ऐसे ही प्रकाशित हो और सर्वोच्च स्थान का हक़दार होते हुए वह देश और दुनिया में ऊँचा चढ़े। पर क्या ये संभव है ? नहीं ,शायद कभी नहीं। हम बदलेंगे नहीं , हमारी नगर निगम व्यवस्था बदलेगी नहीं , कर्मचारियों की काम के प्रति खानापूर्ति बदलेगी नहीं , अफसरों की सिर्फ कुर्सियां तोड़ने की आदत बदलेगी नहीं , सरकार का संसाधन न होने का रोना बदलेगा नहीं , व्यवस्था को सुधारने के प्रयास के लिए कोई आगे बढ़ कर जिम्मेदारी लेगा नहीं , तो कैसे उम्मीद करें कि एक दिन ऐसा हो जायेगा। ये हमारी ही कमजोरी है ,और इसे हम ही ,चाहे हम एक नागरिक हों या कुर्सी पर बैठे अधिकारी बन कर दूर कर सकते हैं। देश में स्वछता के लिए एक राष्ट्रीय सर्वे कराया गया जिसमें स्वच्छ शहर के लिए मैसूर को पुरस्कृत किया गया। जब की हमारा जोधपुर 337 वें नंबर पर चुना गया। शर्मिंदगी हुई पढ़ कर, जान कर पर किया जा सकता है ? मैसूर ने ये लक्ष्य चंडीगढ़ को हराते हुए हांसिल किया है। गर्व है वहाँ की जनता पर और नगर निगम पर जिनके लिए आस पास का हर क्षेत्र और कोना उनकी निजी संपत्ति की तरह कीमती है और रखरखाव के काबिल है। अगर हम खुद को 30 % भी बदल दें तो हम 70 % काम की उम्मीद नगर निगम से कर सकतें है। चूँकि हम टैक्स भरने वालों में से हैं इस लिए ये उनका फ़र्ज़ है कि वह हमारे लिए काम करें।
ऐसा नहीं कि हम किसी दूसरे देश के शहर का जिक्र कर रहें हैं। हमारा देश और हम जैसे ही लोग। बस थोड़ा सा सोच में अंतर और जागरूकता। इस सब से ही वह लक्ष्य हांसिल हो गया जिसे शायद हमने या हमारे शहर के नगर निगम ने असंभव मान कर दरकिनार कर रखा है। आखिर कब तक कर्मचारी काम ना कर पाने या अधिकारी संसाधन ना होने का रोना रोते रहेंगे। जब सरकारी तौर पर नगर निगम को व्यवस्था का जिम्मेदार बनाया गया है। तो उनका ये फ़र्ज़ है कि वह शहर की बदहाल स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास करें। आखिर और भी तो देशों में सफाई व्यवस्था होती है और साथ ही में दिखती भी है। फिर क्यों हमारे यहाँ कहने को तो होती है पर दिखती नहीं है। इस का एक कारण और भी है , जब नौकरी सिर्फ अपनी आगे आने वाली पुश्तों को पालने का जरिया बन जाए तो उस की जिम्मेदारियां सिर्फ खानापूर्ति के लिए रह जाती है। सरकारी नौकरी है समय पर न भी जाएँ तो क्या , काम समय पर नहीं हुआ तो क्या , हुआ भी या नहीं तो क्या , अपने पद के अनुरूप आचरण किया या नही ,काम के पुरे घंटे अपना लक्ष्य समझ किये या नहीं , ये बहुत से मुद्दे हैं जो व्यवस्था को नष्ट करने के लिए काफी है। हम नहीं बदलेंगे क्योंकि हम ने अपने काम के प्रति अपनी जवाबदेही को ही किनारे रख दिया है। जब उसके बिना भी लोग जी रहें हैं , देश और शहर चल रहें है , व्यवस्था घिसट रही है , फिर बिना वजह उसे भगा-भगा कर क्यों थकाया जाए।
भूखे भजन न होए गोपाला,
मिले पगार जब बैठे ठाला ,
लगा रहे जिम्मेदारियों पर ताला,
भाड़ में जाये ये सिस्टम साला।
………अपना पेट भरो और मस्त रहों ,हमारे शहर की व्यवस्था इसी पर चल रही है चाहे वह जनता की सोच हो या नगर निगम के व्यवस्थापकों की।
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जब भी कभी अख़बार की सुर्ख़ियों में किसी देश या शहर का नाम चमकता हुआ आता है। मन में उम्मीद जागने लगने लगती है कि काश हमारे शहर का भी नाम ऐसे ही प्रकाशित हो और सर्वोच्च स्थान का हक़दार होते हुए वह देश और दुनिया में ऊँचा चढ़े। पर क्या ये संभव है ? नहीं ,शायद कभी नहीं। हम बदलेंगे नहीं , हमारी नगर निगम व्यवस्था बदलेगी नहीं , कर्मचारियों की काम के प्रति खानापूर्ति बदलेगी नहीं , अफसरों की सिर्फ कुर्सियां तोड़ने की आदत बदलेगी नहीं , सरकार का संसाधन न होने का रोना बदलेगा नहीं , व्यवस्था को सुधारने के प्रयास के लिए कोई आगे बढ़ कर जिम्मेदारी लेगा नहीं , तो कैसे उम्मीद करें कि एक दिन ऐसा हो जायेगा। ये हमारी ही कमजोरी है ,और इसे हम ही ,चाहे हम एक नागरिक हों या कुर्सी पर बैठे अधिकारी बन कर दूर कर सकते हैं। देश में स्वछता के लिए एक राष्ट्रीय सर्वे कराया गया जिसमें स्वच्छ शहर के लिए मैसूर को पुरस्कृत किया गया। जब की हमारा जोधपुर 337 वें नंबर पर चुना गया। शर्मिंदगी हुई पढ़ कर, जान कर पर किया जा सकता है ? मैसूर ने ये लक्ष्य चंडीगढ़ को हराते हुए हांसिल किया है। गर्व है वहाँ की जनता पर और नगर निगम पर जिनके लिए आस पास का हर क्षेत्र और कोना उनकी निजी संपत्ति की तरह कीमती है और रखरखाव के काबिल है। अगर हम खुद को 30 % भी बदल दें तो हम 70 % काम की उम्मीद नगर निगम से कर सकतें है। चूँकि हम टैक्स भरने वालों में से हैं इस लिए ये उनका फ़र्ज़ है कि वह हमारे लिए काम करें।
ऐसा नहीं कि हम किसी दूसरे देश के शहर का जिक्र कर रहें हैं। हमारा देश और हम जैसे ही लोग। बस थोड़ा सा सोच में अंतर और जागरूकता। इस सब से ही वह लक्ष्य हांसिल हो गया जिसे शायद हमने या हमारे शहर के नगर निगम ने असंभव मान कर दरकिनार कर रखा है। आखिर कब तक कर्मचारी काम ना कर पाने या अधिकारी संसाधन ना होने का रोना रोते रहेंगे। जब सरकारी तौर पर नगर निगम को व्यवस्था का जिम्मेदार बनाया गया है। तो उनका ये फ़र्ज़ है कि वह शहर की बदहाल स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास करें। आखिर और भी तो देशों में सफाई व्यवस्था होती है और साथ ही में दिखती भी है। फिर क्यों हमारे यहाँ कहने को तो होती है पर दिखती नहीं है। इस का एक कारण और भी है , जब नौकरी सिर्फ अपनी आगे आने वाली पुश्तों को पालने का जरिया बन जाए तो उस की जिम्मेदारियां सिर्फ खानापूर्ति के लिए रह जाती है। सरकारी नौकरी है समय पर न भी जाएँ तो क्या , काम समय पर नहीं हुआ तो क्या , हुआ भी या नहीं तो क्या , अपने पद के अनुरूप आचरण किया या नही ,काम के पुरे घंटे अपना लक्ष्य समझ किये या नहीं , ये बहुत से मुद्दे हैं जो व्यवस्था को नष्ट करने के लिए काफी है। हम नहीं बदलेंगे क्योंकि हम ने अपने काम के प्रति अपनी जवाबदेही को ही किनारे रख दिया है। जब उसके बिना भी लोग जी रहें हैं , देश और शहर चल रहें है , व्यवस्था घिसट रही है , फिर बिना वजह उसे भगा-भगा कर क्यों थकाया जाए।
भूखे भजन न होए गोपाला,
मिले पगार जब बैठे ठाला ,
लगा रहे जिम्मेदारियों पर ताला,
भाड़ में जाये ये सिस्टम साला।
………अपना पेट भरो और मस्त रहों ,हमारे शहर की व्यवस्था इसी पर चल रही है चाहे वह जनता की सोच हो या नगर निगम के व्यवस्थापकों की।
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