अंतर्मन की मूक भावाभिव्यक्ति …….......!
यूँ तो हमारे जीवन में रोज घटनाएं आती जाती रहती हैं। हम उन्हें बस यूँ ही जी कर गुजार देते हैं। हम कभी भी उनके भीतर छिपी अच्छाई या बुराई को परखने का प्रयास नहीं करते। यदि हम ऐसा करने लगे तो शायद हमारी परिस्थितियां पहले से और बेहतर बन जाएंगी। क्योंकि तब हम उन्हें अपने विवेक की छलनी से छान कर उसमें से सिर्फ बेहतर का ही चुनाव कर सकेंगे।
इन सारी बातों को मैं एक सन्दर्भ के जरिये परिभाषित करना चाहूंगी। जीवन में कोई भी अमर होकर नहीं आया और एक न एक दिन सभी को ये संसार छोड़ कर चले जाना है। हमारे बीच से कब कोई कैसे चला जाएगा ये हमे नहीं पता है पर उसके जाने का हम पर क्या प्रभाव पड़ेगा और उस प्रभाव को हम किस प्रकार व्यक्त करते है ये विचारणीय मुद्दा है। किसी के जाने का दुःख उसकी यादों के रूप में हमेशा हमारे इर्द गिर्द रहता है। हम उस को कभी भी दुबारा न देख पाने, सुन पाने ,और बोल पाने के लिए याद करते रहतें हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी को याद करने के लिए आप को शब्द , आंसू और भावों की आवश्यकता होती है। यदि आप का कोई दूर का भी परिचित आप के बीच से चला जाए तो आप उसको पिछली तमाम बातों के जरिये पुनर्स्मृत करने लगते हैं। उन तमाम बातों को याद कर यदि आप के स्वतः ही आंसू भी निकल जाए तो ये आप का उसके प्रति अगाध प्रेम का परिचय है। मेरी नजर में इसे कहते हैं किसी को याद करना। जबकि आज के समाज में सिर्फ दिखावे के लिए रुदन और नाटकीयता ही शोक मनाने का तरीका बन गयी हैं। आप के दुःख की गहराई इस बात पर निर्भर करती है कि आप के सम्बन्ध उस व्यक्ति से कैसे थे और आप अपने आस पास उसकी उपस्थिति को कितना जरूरी आंकते थे ?
अभी हाल ही की एक शोक की घटना ने इस सच्चाई के दर्शन करा ही दिए कि दुःख मनाने का सार्वजनिक तरीका कितना सतही हो सकता है। चेहरा ढक कर सिर्फ आवाज के साथ रुदन जिसमे आंसू की उपस्थिति आवश्यक नहीं है, खोखली सामाजिक परम्पराओं का निर्वहन है। जिसे हम आज भी ढो रहें हैं। किसी भी जाने वाले को उसकी अच्छी स्मृतियों से जिन्दा रखना और उसके सम्मान में दिल को उसकी याद दिलाना काफी है , किसी भी आँख को स्वतः ही बरसने के लिए। इस लिए आवश्यक है कि आप उसे याद करें पर दिखावे से हटकर उसे अपने अंदर महसूस करें।
यूँ तो हमारे जीवन में रोज घटनाएं आती जाती रहती हैं। हम उन्हें बस यूँ ही जी कर गुजार देते हैं। हम कभी भी उनके भीतर छिपी अच्छाई या बुराई को परखने का प्रयास नहीं करते। यदि हम ऐसा करने लगे तो शायद हमारी परिस्थितियां पहले से और बेहतर बन जाएंगी। क्योंकि तब हम उन्हें अपने विवेक की छलनी से छान कर उसमें से सिर्फ बेहतर का ही चुनाव कर सकेंगे।
इन सारी बातों को मैं एक सन्दर्भ के जरिये परिभाषित करना चाहूंगी। जीवन में कोई भी अमर होकर नहीं आया और एक न एक दिन सभी को ये संसार छोड़ कर चले जाना है। हमारे बीच से कब कोई कैसे चला जाएगा ये हमे नहीं पता है पर उसके जाने का हम पर क्या प्रभाव पड़ेगा और उस प्रभाव को हम किस प्रकार व्यक्त करते है ये विचारणीय मुद्दा है। किसी के जाने का दुःख उसकी यादों के रूप में हमेशा हमारे इर्द गिर्द रहता है। हम उस को कभी भी दुबारा न देख पाने, सुन पाने ,और बोल पाने के लिए याद करते रहतें हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी को याद करने के लिए आप को शब्द , आंसू और भावों की आवश्यकता होती है। यदि आप का कोई दूर का भी परिचित आप के बीच से चला जाए तो आप उसको पिछली तमाम बातों के जरिये पुनर्स्मृत करने लगते हैं। उन तमाम बातों को याद कर यदि आप के स्वतः ही आंसू भी निकल जाए तो ये आप का उसके प्रति अगाध प्रेम का परिचय है। मेरी नजर में इसे कहते हैं किसी को याद करना। जबकि आज के समाज में सिर्फ दिखावे के लिए रुदन और नाटकीयता ही शोक मनाने का तरीका बन गयी हैं। आप के दुःख की गहराई इस बात पर निर्भर करती है कि आप के सम्बन्ध उस व्यक्ति से कैसे थे और आप अपने आस पास उसकी उपस्थिति को कितना जरूरी आंकते थे ?
अभी हाल ही की एक शोक की घटना ने इस सच्चाई के दर्शन करा ही दिए कि दुःख मनाने का सार्वजनिक तरीका कितना सतही हो सकता है। चेहरा ढक कर सिर्फ आवाज के साथ रुदन जिसमे आंसू की उपस्थिति आवश्यक नहीं है, खोखली सामाजिक परम्पराओं का निर्वहन है। जिसे हम आज भी ढो रहें हैं। किसी भी जाने वाले को उसकी अच्छी स्मृतियों से जिन्दा रखना और उसके सम्मान में दिल को उसकी याद दिलाना काफी है , किसी भी आँख को स्वतः ही बरसने के लिए। इस लिए आवश्यक है कि आप उसे याद करें पर दिखावे से हटकर उसे अपने अंदर महसूस करें।
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