क्षणिक सुख की बलि चढ़ती औरतें……………!
चाहती हूँ की कुछ ऐसा लिख सकूँ जिस को पढ़ने के बाद सकारात्मक भावनाएं पैदा हों पर क्या करूँ जब भी कोई वीभत्स घटना सामने आती है उस पर प्रतिक्रिया करने के लिए विवश हो जाती हूँ। दिल्ली  में दामिनी बलात्कार कांड के बाद बड़ी बड़ी बातें करने और फिर चुप्पी साध लेने वाली सरकारें न जाने कब जगेगी। इस तरह की घटनाएं कितनी दुखद होती हैं ये सिर्फ झेलने वाला ही महसूस कर सकता है। जयपुर से पिलानी जाने वाली बस में कुछ यात्रियों के साथ एक युवती भी सवार थी। उसका गाँव पिलानी के कुछ पहले ही था। बस के झुंझुनू पहुचने पर सभी यात्री उतर गए और वह अकेली रह गयी।  उस बस में ड्राइवर ,कंडक्टर और क्लीनर तीन लोग मौजूद थे। जब उसे बस में अकेला पाया तो बस सही रास्ते पर न ले जा कर किसी सुनसान जगह पर ले गये और युवती का समूहिक बलात्कार कर डाला। हूबहू दामिनी की तरह की घटना। 
                   एक औरत क्या करें ये समझ नहीं आता। आखिर पुरुष क्यों अपनी घृणित मानसिकता का इस कदर गुलाम हो गया है की इंसानियत की सारी  नैतिकताएं  उसे बेमानी लगने लगी है। क्या औरत सिर्फ इस तरह ही प्रयोग में आने वाली वस्तु भर रह गयी है ? इस समस्या का समाधान करने के लिए की न कोई ऐसा कदम उठाना ही पड़ेगा जिस से ऐसा डर पैदा ही जिस से पुरुष की जिंदगी पर असर पढ़ें। आज पुरुष जानता है कि ज्यादा से ज्यादा 2 -4 की सजा के बाद फिर से बरी हो कर वह कुछ भी करने को आजाद हैं। इस लिए उसे इस क्षणिक सुख के पीछे भागना भी अनुचित नहीं लगता। एक तरफ तो हम औरतों के आधुनिक होने का दावा भरते है।  उन्हें बाहर निकल कर आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। दूसरी तरफ उनके लिए बाहर ऐसी परिस्थितियों की व्यवस्था नहीं करते जिस में वह खुल कर स्वतंत्र होकर जी सकें। आखिर औरत पुरुष से कैसे बचेगी ? हर कही, हर जगह, हर समय उसे पुरुषों का सामना करना ही पड़ता है। क्या ऐसा नहीं लगता कि इस समस्या के दो ही उपाय है पहला कि परुष अपनी मानसिकता सुधारे और स्त्री की इज्जत करना सीखें।  दूसरा ये कि यदि पुरुष ऐसा नहीं करते तो जिस भी स्त्री के साथ वह ऐसा करते है उसे ही उनकी सजा तय करने दें। इस में लम्बी कानूनी प्रक्रिया को ल कर स्त्री के धैर्य की परीक्षा न ली जाये। क्योकि जब तक न्याय मिलता है तब तक कई स्त्रियां समाज के तानों से आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाती हैं। गलती न होते हुए भी वह सजा भुगतती हैं और सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दी जाती हैं। न जाने कब कानून को समझ आएगा की एक बार आँख की पट्टी हटा कर पीड़ित का दर्द देखें और समझें। उस क्षण की कल्पना करें जब उसके साथ वह घटना हो रही होगी। उस दर्द को महसूस करें जो उसने उस वक्त सहा होगा। और महसूस करें दर्द उस तिरस्कार का जो बाद में उसे समज द्वारा मिल रहा हो। अब तो चेतो और औरत की अस्मिता के लिए कानून बदलो। ………………      

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