सत्य को स्वीकार करने का साहस करें………… !
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत यात्रा पर आये थे तब उन्हें काफी अच्छा स्वागत सत्कार मुहैया करवाया गया । आखिर वह शक्तिशाली देशों की फेहरिस्त में से एक देश के प्रधान जो थे। उनका स्वागत सत्कार यूँ तो हमारी परंपरा का एक हिस्सा भी था। हम अथिति देवो भवः में विश्वास करने वाले संस्कार रखते हैं। पर आज उनके एक वक्तव्य को ले कर हल्ला बोल की स्थिति उठा ली गयी है जो ये था कि धर्म के नाम पर यदि भारत न बटें तो अच्छी तरक्की कर सकता है, आज अगर गांधी जी होते तो धर्म के नाम पर इसे बंटते देख दुखी होते । इस पर समाचार चैनलों ने अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं दी जिस में ओबामा के इस कथन का खंडन किया गया और इसे विरोधी वक्तव्य माना गया । जबकि मेरा सोचना है कि अपनी यदि कोई अपनी कमजोर नस पकड़ ले तो उसे स्वीकार करना चाहिए। ये सत्य है कि जब भी भारत कमजोर साबित हुआ है सिर्फ धर्म से जुड़ी कोई न कोई वजह जिम्मेदार रही है। हम सही मायनों में मात इस लिए खाते हैं क्योंकि अपनी अपनी धार्मिक रूढ़िवादिता के आगे हम ने कभी भी समाज या इंसानियत को तवज्जो नहीं दी। सिर्फ एक छोटी सी धार्मिक तना -तनी एक बड़े धार्मिक आंदोलन का रूप ले कर बलवे में बदल जाती है और सैकड़ों हजारो जानों की बलि चढ़ा दी जाती हैं। सब अपने अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के लिए किसी भी हद तक दूसरे धर्म की निंदा कर सकते है। साथ ही बचाव के लिए कही से भी ,कोई भी अवांछनीय तर्क खड़ा कर सकते हैं। जिस का न तो कोई वजूद होता है न ही प्रसंग।
ये सत्य है कि यदि भारत वाकई एक होना चाहता है तो उसे सब से पहले धार्मिक तौर पर एकरूप होना पड़ेगा। अपनी सोच और श्रद्धा उस एक परमपिता के लिए संजोनी पड़ेगी जिसने इस ब्रह्माण्ड की रचना की है। क्योंकि हमें बनाने वाला एक ही है। इसे तो हमने अलग अलग धड़ों में बाँट कर धर्म का नाम दे दिया है। जो भी कोई जिस भी धर्म को मानता है उसके प्रति श्रद्धा भी बस इतनी सी है कि हम चाहे अपने इष्ट की कितनी भी अवहेलना करें कोई दूसरे धर्म का हमें कुछ भी न बोले। नहीं तो आप खुद सोचें कि अगर ऐसा नहीं है तो अपने इष्ट के लिए बनाये गए मंदिर या मस्जिद इतने बेहाल स्थिति में नहीं होते। बिना वजह मंदिर या मस्जिद के नाम पर कत्ले आम नहीं होते। भारत में जितने भी धर्म है सभी अपने अपने नियमों के बंदी हैं। कोई भी धर्म किसी दूसरे धर्म के नियमों को इज्जत देना नहीं चाहता। यही फसाद की सबसे बड़ी जड़ है। वास्तव में भारत की राजनीती ही धर्म की बैसाखी से चल रही है। क्यों बुरा लग रहा है जब कोई दूसरा हमारी दुखती रग को छेड़ गया ? जबकि यही असलियत है। विदेशों में सामंजस्य क्यों बैठ पाता है क्योंकि वहाँ हर कोई सिर्फ जीजस को पूजने वाला है। एक परमपिता, एक ही श्रद्धा और अगर दूसरा कोई है भी तो वह अपनी धर्मिक भावनाएं दूसरे धर्म के ऊपर हावी नहीं होंने देता। यही मूलमंत्र है किसी देश की प्रगति का। जो कि शायद भारत में नहीं हो सकता।
Comments
Post a Comment