मैं औरत हूँ ……!
मैं औरत हूँ …क्या सिर्फ एक चीज,
कितने ही प्रयोग, पर हर बार खरी।
समय के साथ बदली मगर, 
नहीं हुई कुन्द बेड़ियों से बरी। 
जीवन की राह बदली तो जरूर ,
पर गम के चौराहे पर थमी ठहरी। 
वसंत में कुछ हरा हुआ जीवन, 
पर पतझड़ में न हो पाई हरी।  
निरंतर इस्तेमाल होने पर भी ,
हर प्रयोग के बाद हुई और भी गहरी। 
पुरुष की घृणित मानसिकता की बंदी 
हर वक्त रहें सहमी सी और डरी। 
सब के जीवन को अर्थ देने वाली ,
कभी भी खुल के नहीं फहरी।
संकोच और शर्म से बंधी, बनी रही ,
सामाजिक बंधनों की गठरी ,
खुद खालीपन सह कर भी ,
उम्मीदों की झोली सबकी भरी। 
मैं औरत हूँ .......... कोई चीज नहीं ,
जो रहे बंधी सहमी और डरी। 





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