संवेदनहीन जीने की लत ..........!
हम ने जीना सीख लिया है ,
खो कर अपने अहसास को।
खुद को आम नहीं समझा ,
तवज्जो नहीं दी ख़ास को।
दर्द और पीड़ा के मायने ,
सिर्फ खुद का ही जाना है।
तभी नहीं दीखता है कि ,
कुछ देने में ही पाना है।
क्रोध की पराकाष्ठा ने ,
सहनशीलता को कुचल दिया।
मनमुटाव के फलते पेड़ ने,
हर रिश्ते का क़त्ल किया।
अपना और अपना ही सोचो ,
इसी पे दुनिया चलती है।
क्या मतलब उस समाज से ,
जिनमें रहकर खुशियां फलती हैं।
सीमित हो जाने का मतलब ,
सब कुछ खोने जैसा है।
और अकेले हो जाना तो ,
छुप कर रोने जैसा है। 
तोड़ो मत रिश्तों की डोर ,
मिल जाये तो फिर छोडो मत।
अपनी ओर आते रिश्तों को ,
 अहम से दूजी ओर मोड़ो मत। 










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