वादों की सच्चाई पर यकीन……………?

सब से पहले तो क्षमाप्रार्थी हूँ कि विगत 4  -5  दिन से आपको नियमित लेख नहीं मिल पाये।  कारण मेरे परिवार का एक विवाह आयोजन था। जिस में सम्मिलित होना आवश्यक था। इस बीच एक नयी खबर का आगाज हुआ वह है दिल्ली में केजरीवाल की सरकार का आना। इस खबर से जुडी जो चंद  बातें मेरे मन में आईं वह आप से बांटना चाहती हूँ।  वह है असंभव वादों पर सरकार बनाने का प्रयास। मैं ये नहीं कहती कि केजरीवाल ने जो कुछ कहा है वह पूरा नहीं कर सकते। पर राजनीतिक लोगों के ऐसे वादों से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए जिसे पूरा करने में उन्हें लम्बा समय लगने वाला हो या अकूत धन खर्च होने वाला हो। आज कल जनता जिसे वोट दे कर चुनती है उनसे तुरंत परिणाम की उम्मीद लगाती है। मोदी ने सरकार बनाने से पहले ये वादा किया था की उनके प्रधानमंत्री बनते ही काला धन वापस आ जायेगा और हर भारतीय के बैंक खाते में कम से कम 15 लाख जमा होंगे। पर आज वह वादा ,वादा ही रह गया। शायद इसी का खमियाजा दिल्ली चुनाव में बीजेपी की सरकार को भुगतना पड़ा। 
               उसी से मिलती जुलती गलती केजरीवाल ने भी की। ऐसे वादों के बल पर सरकार बना ली जिन्हे पूरा न कर पाने पर आलोचना के साथ अगले चुनाव में सफाया होने की उम्मीद भी की जा सकती है। दिल्ली में मुफ्त वाई -फाई , रियायति दर पर बिजली ,पानी ,रोजगार की गारंटी आदि ऐसे वादे है जिन के लिए उनकी सरकार को भारी आर्थिक संकट से जूझना पड़ सकता है। जब धन ही नहीं होगा तो चहुंमुखी विकास कैसे होगा ?  ये एक मुख्य मुद्दा है। जनता की अपेक्षाएं पूरी करना ठेढ़ी खीर है। ये माना जा सकता है कि केजरीवाल नौकरीपेशा कर्मचारी होने के नाते ईमानदार है और अपनी सरकार के अन्य मंत्रियों से ईमानदारी से काम भी निकलवा सकते हैं। शायद यही एक सत्य है जो इस बात की उम्मीद दिला सकता है की ये सरकार कुछ तो करेगी। पर कितना करेगी ये प्रश्न आज भी वैसे ही खड़ा है ? उसे इस के लिए जनता के सहयोग की जरूरत पड़ेगी।  और जनता को वह किस तरह से अपने साथ करती  है ये ही उसका भविष्य तय करेगा। भारत के विकास में अगर विदेशों की तरह तेजी नहीं है तो इसकी जिमेदार यहाँ की सरकारें हैं। एक बार कुर्सी मिलने के बाद खुद को खुदा समझने की नियत ने जनता से जितना लिया है उतना कभी भी लौटाया नहीं है।नहीं तो करोड़ों आबादी वाला देश सामान्य सी सहूलियतों के लिए सरकार का मुहं ताकता रहता है। काले धन का मुद्दा खड़ा ही क्यों हुआ ? क्योंकि अपना घर भरने की चाह ने तमाम सपनों को कुचल दिया। यही नेताओं की फितरत है और यही हमारी किस्मत।  हम कोई भी सरकार चुने सब सिर्फ संसद में लड़ कर अपने हिस्से में ज्यादा से ज्यादा फंड पाने की आस रखते हैं। जिस में से सिर्फ चौथाई ही हमारे खर्च के लिए मिलता है बाकि सब स्विस बैंक में जमा हो जाता हैं।  

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