मस्तिष्क पर इच्छाओं के नियंत्रण का परिणाम………!
इंसान के जीवित रहने के लिए अगर कुछ सबसे जरूरी है वह है उसका मस्तिष्क। क्योंकि यही है जो पुरे शरीर को संचालित करता है। आज हम अपनी बदलती जीवन शैली के चलते इसी को सबसे ज्यादा तनाव में रहने को छोड़ देते हैं। जिस का परिणाम हमें कई तरह के रोगों और बाहरी तकलीफों के जरिये भुगतना पड़ता है। आप के निर्णय ही आप को रोगी और सामाजिक रूप से नाकारा , स्वार्थी ,असंतोषी , आलसी बना देते हैं। इस में कसूर आप का है क्योंकि जो भी कुछ आप चाहते है दिमाग शरीर को उसे करने की इजाजत दे देता है। हम सामाजिक रूप से नयी व्यवस्थाओं के प्रति इतने आकर्षित हो चुकें हैं कि हम उसके नकारात्मक परिणामों के प्रति सवेंदनहीन बनते जा रहें हैं।
अगर सही मायनों में देखा जाए तो मस्तिष्क या दिमाग के तीन दुश्मन माने जा सकते हैं। पहला क्रोध ,दूसरा ईर्ष्या ,तीसरा चिंता ……क्रोध में सही गलत का भान नहीं होता और मस्तिष्क भी उसी धारा में बह कर अनुचित निर्णय लेने लगता हैं। दूसरा ईर्ष्या जो की सबसे ज्यादा घातक है। क्योंकि ये एक ऐसा रोग है जिस की कोई सीमा नहीं होती। किन्ही दो लोगों की सब चीजें सामान तो नहीं होती ऐसे में दूसरे की वस्तु की इच्छा, ईष्या का रूप ले लेती है। ये ईर्ष्या कभी भी खुश नहीं रहने देती और मस्तिष्क हमेशा इसी जुगाड़ में लगा रहता है कि कैसे दूसरे से बेहतर बना जाए। इस जद्दोजहद में उसका सुकून खो जाता है और उलझाव का परिणाम पूरा शरीर भुगतता है। अब तीसरा देखें वह है चिंता ,सही कहा गया है चिंता चिता के सामान है। हम जानते है फिर भी करते हैं। ऐसा इस लिए क्योंकि धर्य और समय की हमने कीमत करना छोड़ दिया हैं। क्या आप ने मंसूस किया है कि कभी कभी हम उन बातों पर भी चिंता करते हैं जिन के परिणाम का समय हमारे हाथ में नहीं हैं। गर्भ धारण हुआ नहीं कि साथ ही इस चिंता ने जन्म ले लिए कि बेटा होगा या बेटी ……सामान्य सी चिन्ताएं भी कभी कभी बड़ी मासिक वेदना का रूप ले लेती हैं। यही चिंता हमारी मानसिक शक्ति को अवरुद्ध कर देती है। हमें अपने मस्तिष्क को अपनी इच्छाओं के आगे विवश होने से रोकना होगा। जिस दिन ऐसा कर पाये उस दिन मन के साथ सेहत भी अच्छी हो जायेगी। और साथ ही आप एक बेहतर सामाजिक प्राणी के रूप में जाने जा सकेंगे।
इंसान के जीवित रहने के लिए अगर कुछ सबसे जरूरी है वह है उसका मस्तिष्क। क्योंकि यही है जो पुरे शरीर को संचालित करता है। आज हम अपनी बदलती जीवन शैली के चलते इसी को सबसे ज्यादा तनाव में रहने को छोड़ देते हैं। जिस का परिणाम हमें कई तरह के रोगों और बाहरी तकलीफों के जरिये भुगतना पड़ता है। आप के निर्णय ही आप को रोगी और सामाजिक रूप से नाकारा , स्वार्थी ,असंतोषी , आलसी बना देते हैं। इस में कसूर आप का है क्योंकि जो भी कुछ आप चाहते है दिमाग शरीर को उसे करने की इजाजत दे देता है। हम सामाजिक रूप से नयी व्यवस्थाओं के प्रति इतने आकर्षित हो चुकें हैं कि हम उसके नकारात्मक परिणामों के प्रति सवेंदनहीन बनते जा रहें हैं।
अगर सही मायनों में देखा जाए तो मस्तिष्क या दिमाग के तीन दुश्मन माने जा सकते हैं। पहला क्रोध ,दूसरा ईर्ष्या ,तीसरा चिंता ……क्रोध में सही गलत का भान नहीं होता और मस्तिष्क भी उसी धारा में बह कर अनुचित निर्णय लेने लगता हैं। दूसरा ईर्ष्या जो की सबसे ज्यादा घातक है। क्योंकि ये एक ऐसा रोग है जिस की कोई सीमा नहीं होती। किन्ही दो लोगों की सब चीजें सामान तो नहीं होती ऐसे में दूसरे की वस्तु की इच्छा, ईष्या का रूप ले लेती है। ये ईर्ष्या कभी भी खुश नहीं रहने देती और मस्तिष्क हमेशा इसी जुगाड़ में लगा रहता है कि कैसे दूसरे से बेहतर बना जाए। इस जद्दोजहद में उसका सुकून खो जाता है और उलझाव का परिणाम पूरा शरीर भुगतता है। अब तीसरा देखें वह है चिंता ,सही कहा गया है चिंता चिता के सामान है। हम जानते है फिर भी करते हैं। ऐसा इस लिए क्योंकि धर्य और समय की हमने कीमत करना छोड़ दिया हैं। क्या आप ने मंसूस किया है कि कभी कभी हम उन बातों पर भी चिंता करते हैं जिन के परिणाम का समय हमारे हाथ में नहीं हैं। गर्भ धारण हुआ नहीं कि साथ ही इस चिंता ने जन्म ले लिए कि बेटा होगा या बेटी ……सामान्य सी चिन्ताएं भी कभी कभी बड़ी मासिक वेदना का रूप ले लेती हैं। यही चिंता हमारी मानसिक शक्ति को अवरुद्ध कर देती है। हमें अपने मस्तिष्क को अपनी इच्छाओं के आगे विवश होने से रोकना होगा। जिस दिन ऐसा कर पाये उस दिन मन के साथ सेहत भी अच्छी हो जायेगी। और साथ ही आप एक बेहतर सामाजिक प्राणी के रूप में जाने जा सकेंगे।
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