Agnosticism -विश्वास और अविश्वास के बीच की धारणा
Agnosticism- विश्वास और अविश्वास के बीच की धारणा :
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Agnostic होना विश्वास और अविश्वास के बीच की एक भावना है। अंग्रेजी में एक शब्द है "Theist" अर्थात आस्तिक जो भगवान में आस्था रखने वाला होता है और एक होता है "Atheist" अर्थात नास्तिक जो ईश्वर के अस्तित्व से इंकार रखता हो। इन्हीं दोनों के बीच में एक term होता है Agnostic अर्थात जो ईश्वर का 100% विश्वास नही करता (लेकिन नकारता भी नहीं है).. दुनियां के अधिकतम लोग यही agnostic होते हैं, बस वो ये होना स्वीकार नहीं करते......!
ये जीवन में होने वाले अनुभवों से ही निश्चित होता है। कुछ समय पहले मुझे भी जीवन में कुछ ऐसे अनुभव हुए। जिसके बाद मैनें भी कुछ ऐसा विश्वास करना शुरू कर दिया। लेकिन इसके बाद भी मैनें अन्य किसी को ऐसा मानने की सलाह नहीं दी। क्योंकि जब तक किसी को ख़ुद ही दिल से feel न हो तब तक ईश्वर, अल्लाह, God, पर किया भरोसा मत तोड़ो या ना करो। ये सारी श्रद्धा, विश्वास दिल से निकलना चाहिए। आपका ईश्वर के साथ रिश्ता आपका निजी है। इसको किसी को explain करने की जरूरत नहीं है। जब खुद ने feel कर लिया यही काफी है.. लेकिन जब तक feel न हो, उसे मानने या छोड़ने का ढकोसला ना किया जाए । ईश्वर जब सभी का है, तो तुम्हारा भी है, उसको तुम्हारी फिक्र है तो रास्ता दिखाएगा ही दिखायेगा। बस हमें अपनी आँखें खुली रखना होगा....ईश्वर कई रूप में आता है, बस हमें अच्छा इंसान बने रहना है। जिससे हमारे आसपास के सभी का जीवन खुशहाल हो।
Agnostic होना इतना भी बुरा नहीं। क्योंकि तब हम अपने achievements और failures के लिए किसी अन्य को जिम्मेदार नहीं मानते। हम खुद ही अपने निर्णयों के लिए उत्तरदायी होते हैं। इसमें बस इतना मानना होता है कि कोई तो है जो सृष्टि चला रहा है लेकिन हम अपनी किस्मत का लिखा जी रहे हैं। ये धारणा इंसान को मजबूत ही बनाती है। ज़्यादातर आस्तिक या नास्तिक लोग स्थितियों से किसी दूसरे के भरोसे लड़ते हैं। जबकि agnostic लोग अपने सामने आई परिस्थिति के अनुसार खुद को ready करते हैं। जब ईश्वर ने हमारी रचना करके हमें जीवन दे धरती पर भेज दिया और भाग्य में सब कुछ लिख दिया। तो हम उसे विश्वास या अविश्वास के जरिये बदल नहीं सकते। इसलिए agnostic होकर atleast हम उसे सहर्ष स्वीकारने की हिम्मत बना पाते हैं।
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