ईश्वर का आशिर्वाद रूपी हाथ

ईश्वर का आशीर्वाद रूपी हाथ :      ••••••••••••••••••••••••••••

कभी किसी अजनबी के दर्द को अपने दिल में महसूस करके देखिए सच में बहुत सुकून का अहसास होता है। लगता है कि ईश्वर ऊपर बैठे आशीर्वाद में हाथ सर पर रखे हुए हैं। 

इसी से जुड़ी एक कहानी का जिक्र करना बनता है। जिसमें एक डाकिए और एक बूढ़ी औरत की आत्मीयता का किस्सा है।

डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते ही अपनी साईकिल रोक दी और कहा - अम्मा! आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है। अपनी आँखों पर चढ़े चश्मे को उतार आँचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी आँखों में अचानक एक चमक सी आ गई....वह बोली "बेटा, पहले जरा मेरे बेटे से बात करवा दो।

अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से डाकिये की ओर देखा, लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा और कहा, "अम्मा, इतना समय नहीं रहता मेरे पास कि हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूँ। डाकिए ने अम्मा को अपनी व्यस्तता की कह कर बात टालनी चाही लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी, "बेटा , बस थोड़ी देर ही बात करूंगी। एक बार उसकी आवाज़ सुन लेती हूं तो चैन आ जाता है।

डाकिया बाबू बोले - अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो। यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा....लो अम्मा, बात कर लो, लेकिन ज्यादा बात मत करना, पैसे कटते हैं।

उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया। उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।

 डाकिये ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए और कहा गईं लो पूरे हजार रुपए हैं अम्मा । रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया.....

अब क्या हुआ अम्मा ? ? डाकिया बाबू ने पूछा 

"यह सौ रुपए रख लो बेटा!" - अम्मा बोली

"क्यों अम्मा?" डाकिया ने आश्चर्य से कहा

 अम्मा बोली कि  - हर महीने रुपए पहुँचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो, कुछ तो खर्चा होता होगा ना।

डाकिया बाबू बोले - अरे नहीं अम्मा! रहने दो । 

वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहाँ से वापस जाने को मुड़ गया। 

अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।

वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहाँ से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..उसने पीछे मुड़कर देखा तो, उसके सामने उसकी पहचान का मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश जी खड़े थे।

डाकिए ने पूछा -   भाई साहब आप यहाँ कैसे ? आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना ? ?

 रामप्रवेश जी बोले -  मैं यहाँ किसी से मिलने आया था। अचानक आप मिल गए। सारा वाक्या देखा तो मुझे आपसे कुछ पूछना है।

जी पूछिए भाई साहब। डाकिये ने बहुत ही शांति पूर्वक कहा

रामप्रवेश जी बोले - भाई! आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं ? ?

हर महीने आप इस अम्मा को अपनी जेब से रुपए देते हैं और मुझे भी फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए रुपए देते हैं । ऐसा क्यों.... ? ?

रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिये ने कहा-  मैं रुपए इन्हें नहीं एक माँ को देता हूँ। डाकिया आगे बताने लगा..."इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था। लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी। उसमें लिखा था कि "संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई! अब वह नहीं रहा।" 

हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई! 

कोरोना में मैंने भी अपनी माँ को खो दिया, पर हर महीने मनीऑर्डर के बहाने जब इनके पास आता हूँ तो, अपनी माँ की छवि इन वृद्ध मां में देखता हूँ।" यह कहते हुए उस डाकिये की आँखें भर आई। 

लेकिन डाकिये ने रामप्रवेश के उत्तर का इंतजार किए बिना अपनी साईकिल उठाई और डाक बाँटने के लिए आगे बढ़ गया।

रामप्रवेश उस डाकिये का एक अजनबी अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया। उस समय उसके भीतर बस एक ही भाव था -

अगर हम सब के अंदर वसुधेव कुटुम्बकम की भावना पैदा हो जाए तो, यह संसार कितना खूबसूरत हो जाएगा...!!

दो सबसे महत्वपूर्ण गुण जो हमें इंसान बनाते हैं, वे हैं , दूसरों के साथ सहानुभूति और समानुभूति रखने की क्षमता और उनकी मदद करने की इच्छा।

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