रेत होना: एक सोच , एक विधा

 रेत होना : एक सोच , एक विधा

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कभी कुछ कहीं सुन लो पढ़ लो या देख लो तो उसे अपने नज़रिए से समझने की कवायद चलने लगती है। हर किसी का अपना अलग नज़रिया होता है। परन्तु हर नज़रिया आप के आप में एक नया अनुभव होता है। कोई कोई देखी सुनी पढ़ी बात कितने देर तक धीरे धीरे मथती रहती मन में लगातार कि आप सोचते हैं मानो कुछ अबूझ,अनन्त, अपूर्ण है जो हमें समझ नहीं आ रहा। 

अभी हाल ही में एक लेखिका द्वारा अपने लेख में लिखी एक पंक्ति पढ़ी .....

"नदी की बात होती है तो सभी पानी की बात करते हैं! रेत की बात कोई नहीं करता !! जबकि रेत नदी की ताकत को दर्शाती है!"

 ये दो पंक्तियां अपने आप में बहुत कुछ कहती है। जिसे अपनी समझ से इस तरह परिभाषित किया जा सकता है कि...  "रेत होना अर्थात अहंकार मुक्त हो जाना है ,एक सख्त पत्थर से,नरम मुलायम कण में तब्दील होना, मानो खुद में अवशोषयता का गुण पैदा कर देना। जो पानी के साथ तो बहती है पर पानी में मिलती नहीं।

रेत मिट्टी नहीें है,वो पानी में घुलती नहीें। मानो रेत आत्मा की तरह हो, मिट्टी देह की तरह । और रेत,पहाड़ या पत्थर के टूटने से नहीें बल्कि धीरे धीरे, बरसों, अपने पहाड़ सरीखे अंहकार को घिसते घिसते इतना नरम मुलायम बन जाती है कि हथेली की पतली सी झिर्री से निकल जाए, कुछ भी हाथ में शेष नहीं बचता। कुछ नहीें होकर ही वो किनारे बिछ जाती है समुद्र के, नदी के, ताकि चलने वालों के पैर को मखमली एहसास कराये,पत्थर सी चुभे नहीें।धूप में गर्म होकर सचेत भी करती है-घर जाओ,शाम को आना ,तब तक मैं खुद को ठंडा कर लूंगी। रेत बनकर ही वो सीमेंट के साथ मिलकर दो पत्थरों को जोडकर इमारत बना देती हैं। आकार भी तो पानी  के संग रह कर पानी की तरह ,जिसमें रखो, फैल सिकुड़ जायेगी।

पत्थर से रेत होना- बुद्ध कबीर के जरा निकट आने जैसा होगा। सो मरकर या मरते वक्त रेत हो जाना सचमुच उजला होकर धब्बा रहित हो जाना है। क्योंकि मिट्टी होना तो किसी एक निश्चित आकर में होना, इकट्ठा होना या ठहर जाने का नाम है। मिट्टी होना अर्थात धरा बन जाना भी होगा। परंतु रेत बनना बहाव की निशानी है। हल्की फुल्की डुलती हुई सी। कस कर कहीं रुकना जिसे ना आता हो। जो बहाव के साथ बहने में खुद को सहज महसूस करती हो। इसलिए हो सके तो रेत की तरह बनो। मिट्टी की तरह नहीं....!!

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