गांव की दावत
गांव की दावत :
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हालांकि मेरा पालन पोषण ज्यादातर शहरों में ही हुआ। पढ़ाई के चलते भी शहर में ही रहना पड़ा। पर कभी कभार पुश्तैनी गांव जाना होता था। या फिर किसी रिश्तेदारी के चलते गांव गए हम। जहां की कुछ यादें आज भी मन में बैठी हुई हैं। आम के मौसम में गांव में पहुंचते ही बाल्टी भर चूसने वाले आमों की भेंट सामने रख दी जाती थी। बस बेफिक्र होकर खाते जाइये। बड़े बड़े गिलासों में गन्ने का रस या मसाला छाछ आवभगत के लिए तैयार रहता था। गाँव की जिंदगी जितनी सरल होती है उतनी ही सुंदर भी।
मुझे अभी भी याद आता है जब किसी अपने या किसी दूसरे गाँव मे दावत होती थी। तो सभी बड़े बुजुर्ग और चाचा ताऊ सर पर अंगोछा बांधकर खेतों की मेंड़ों और चकरोडो से होते हुए दावत वाली जगह पहुँचते थे। महिलाओं और बच्चों में भी होने वाली दावत का ग़ज़ब उत्साह होता था। ये भोज पत्तल वाली दावत कही जाती थी। जिसमें लंबी लंबी टाट पट्टियां बिछाकर लोगों को भोज के लिए जमीन पर बिठाया जाता था। परसने वाले लोग उन्हें मनुहार करके खिलाया करते थे।
ग्राम सभ्यता के इतिहास में शादी की दावतों में पत्तल वाली दावत और सकोरा वाले दही का अपना अलग ही स्थान था। सकोरा अर्थात बड़ा सा मिट्टी का दिया। जिसकी अपनी एक मिट्टी की भीनी सुगंध होती है। जिसमें दही डालकर ऊपर से शक़्कर बूरा की ढेरी। मतलब खा कर बिल्कुल जन्नती अनुभूति। वो आत्मीयता और मिठास आजकल के बुफे में कहां ? ? खाते हुए अगली पूड़ी के इंतेज़ार में बगल में बैठे व्यक्ति से बतकही भी हो जाती थी। खाना भी पत्तल में उतना ही लिया जाता था जो खाया जा सके। क्योंकि अमूमन पत्तल खुद ही उठा कर फेंकना पड़ता था। ऐसे में भरा हुआ पत्तल उठाया नहीं जा सकता। लेकिन धीरे धीरे लोगों ने आधुनिकता की दौड़ में इसको खत्म कर दिया था। जिन लोगों ने कभी ऐसी दावतों का मज़ा लिया है उनके चेहरे पर ज़रूर एक मुस्कान आएगी और वह बरबस ही ऐसी किसी दावत की यादों में डूब जायेंगे।
अब आधुनिकता की आंधी के चलते ये परंपरा थोड़ी बहुत जहां तहां बची रह गयी है। वो बची खुची भी खत्म हो रही है। ऐसा नहीं कि आज हम फ्लैट या बंगलों की जिंदगी जीते हुए उसका आनंद नहीं ले सकते। मौके बनाने के लिए कोई करोड़ो खर्च करने की जरूरत नहीं। एक घनी छांव का पेड़ ढूंढा जाए। थोड़ी बहुत खाने पीने की सामग्री इकट्ठा करो। पेड़ के नीचे गमछा बिछाओ। बैठो और उस खाने को ग्रामीण परिवेश में ग्रहण करने का स्वाद लो। महसूस किया जाए वही गाँव के नीम का पेड़, गांव का लिपा हुआ चबूतरा, दही का सकोरा, भोलुआ अर्थात बड़ी मिट्टी की हांडी जिसमें दही जमाई जाती है। ये स्वाद की ऐसी परंपरा है जिसे भूलना नामुमकिन सा है। जरूरी नहीं कि कोई गावँ में रहा है हो। पर कभी कभार तो गांव गया होगा। उसकी कुछ तो मीठी यादें जेहन में होंगी ही....उसे याद करके कुछ पल तो खुशी बटोरी जा सकती है।
बड़े बड़े शहरों में सकोरे भोलुआ, पत्तल का इंतज़ाम भी एक टास्क हो सकता है। पर ये टास्क भी निभाने में मज़ा ही देगा। क्योंकि इसका परिणाम सुखद है। मिठास भरे स्वाद और आत्मीयता की छौंक से लबरेज़।
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