मिठाईयां बनाम खुशियाँ

 मिठाईयां बनाम ख़ुशियाँ : 

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मैं जब भी अपनी बचपन की गलियों में खो जाती हूं जिसकी एक मीठी-सी याद मेरे दिल को छू लेती है। वो दिन जब पड़ोस में किसी के घर बच्चे की किलकारी गूंजती, कोई मेहमान आता, या कोई खुशी का मौका होता, तो मिठाई की थाली लिए लोग एक-दूसरे के घर पहुंच जाते। उस समय इस प्रथा को बयना भेजना कहा जाता था। अर्थात खुशी की मिठाई। एक अनोखा अपनापन था। लड्डू, बर्फी या घर की बनी मिठाई के साथ सिर्फ खुशी ही नहीं बंटती थी, बल्कि रिश्तों की गर्माहट भी बढ़ती थी। लेकिन आज, वही मिठास कहीं खो-सी गई है।

अब लोग अपनी खुशियों को छुपाने लगे हैं। शायद डर है कि कहीं किसी की नजर न लग जाए, या फिर समय की कमी और आधुनिक जीवन की भागदौड़ ने हमें इतना व्यस्त कर दिया है कि हम पड़ोस के दरवाजे तक नहीं पहुंच पाते। पहले जहां खुशी बांटने में सुकून मिलता था, अब लोग उसे अपने तक सीमित रखना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डालकर या व्हाट्सएप पर दो-चार मैसेज भेजकर हम खुशी जाहिर तो कर लेते हैं, लेकिन वो पुराना वाला अपनापन, वो आमने-सामने की मुस्कान और मिलन, वो मिठाई के आदान प्रदान का स्वाद अब कहां ? ? 

इस बदलते दौर में ना जाने क्यों रिश्तों में भी खटास-सी आ गई है। पहले पड़ोसी परिवार का हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन अब तो कई बार तो हम उनके नाम तक नहीं जानते। दीवारें वही हैं, मगर उनमें अब पहले जैसी पारदर्शिता नहीं रही । शायद हमारी सोच में स्वार्थ और अविश्वास की परतें चढ़ गई हैं। खुशी बांटने की जगह हम उसे संदेह की नजर से देखने लगे हैं। ये मानने लगे हैं कि हर कोई दूसरे को हमारी खुशी से जलन होगी। इसलिए छुपाओ।  क्या सचमुच नजर लगने का डर इतना बड़ा हो गया है कि हम अपने दिल की बात, अपनी खुशी को दुनिया से छुपाने लगे हैं ? ?

मुझे लगता है, इस खटास को दूर करने के लिए हमें फिर से पुराने दिनों की ओर लौटना होगा। एक छोटा-सा कदम, जैसे पड़ोसी को मिठाई की थाली देना, किसी के घर जाकर "बयना" साझा करना, या बस मुस्कुराकर हालचाल पूछना, रिश्तों में फिर से मिठास घोल सकता है। आइए, अपनी खुशियों को छुपाने की बजाय उन्हें बांटें, क्योंकि खुशी तब और बढ़ती है, जब वो दिलों को जोड़ती है। क्या हम फिर से वो मिठास लौटा सकते हैं? मैं तो कोशिश करती हूँ, आप भी करिए...दिल खुश हो जाएगा। 😊😍

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