परपीड़ा में आनंद
परपीड़ा में आनंद :
***************
क्या आपने कभी महसूस किया है कि समाज में कुछ लोग, कुछ वर्ग या समूह, दूसरों की पीड़ा, असफलता या गिरावट में एक विचित्र प्रकार का सुख महसूस करते हैं ? यह प्रवृत्ति केवल एक नैतिक विचलन नहीं है, बल्कि एक गहरे मानसिक, ऐतिहासिक और सामाजिक विकार का संकेत भी है। यह मानसिकता समाज को भीतर ही भीतर खोखला कर देती है—जहाँ खुशियाँ व्यक्तिगत विकास से नहीं, बल्कि दूसरों के पतन से परिभाषित होती हैं।
मनोविज्ञान इस व्यवहार को शादेनफ़्रोइड (Schadenfreude) के रूप में पहचानता है—अर्थात् "दूसरे के दुख में आनंद"। जब कोई व्यक्ति स्वयं से संतुष्ट नहीं होता, अपनी उपलब्धियों को लेकर हीनता से ग्रस्त होता है, तब वह दूसरों की असफलता में सुकून खोजता है। यह सुकून, दरअसल, एक अस्थायी मुखौटा है—जो आत्मविश्वास की कमी, गहरे हीनभाव और सामाजिक तुलना के तनाव को छुपाने का प्रयास करता है। दुर्भाग्यवश, जब यह प्रवृत्ति केवल व्यक्तिगत स्तर पर न रहकर सामूहिक चेतना का हिस्सा बन जाती है, तो वह समाज को एक विषैले मोड़ पर ले जाती है।
इतिहास बताता है कि जब समाज दूसरों की विफलता में अपना गौरव खोजने लगता है, तो वह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारता है। इस मानसिकता ने न केवल असमानता बढ़ाई, बल्कि सामूहिक प्रगति की गति को भी अवरुद्ध किया। परिणामस्वरूप समाज टुकड़ों में बँट जाता है और कोई भी टुकड़ा पूरी तरह समृद्ध नहीं रह पाता है।
इस प्रवृत्ति का असर केवल व्यापक समाज पर ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर भी गहरा होता है। जिन परिवारों में बच्चों को यह सिखाया जाता है कि "दूसरों को नीचा दिखाकर खुद को ऊपर साबित करना है", वहाँ करुणा, सहानुभूति और सहयोग जैसी मूलभूत मानवीय संवेदनाएँ मर जाती हैं। ऐसे बच्चे आगे चलकर संवेदनहीन, आत्ममुग्ध और असुरक्षित वयस्क बनते हैं—जो स्वयं में रचनात्मक ऊर्जा की कमी को दूसरों की विफलताओं में लिप्त होकर पूरा करने की चेष्टा करते हैं। सामूहिक रूप से यह एक "क्रेब इन ए बकेट" (एक बाल्टी में केकड़े) जैसी स्थिति बनाता है—जहाँ हर कोई ऊपर चढ़ने की कोशिश में दूसरे को नीचे खींचता है।
ऐसे माहौल में सामाजिक विश्वास नाम की कोई चीज़ नहीं बचती। जब एक समुदाय दूसरे समुदाय के दुख में खुशी महसूस करता है, तो संवाद, सहयोग और सह-अस्तित्व जैसी अवधारणाएँ दम तोड़ देती हैं। यह स्थिति अंततः उस समाज को खोखला बना देती है, जहाँ कोई भी समुदाय वास्तव में सुरक्षित और स्थायी रूप से समृद्ध नहीं हो सकता।
परंतु इस प्रवृत्ति का कोई समाधान है क्या? हाँ, है।
★ भावनात्मक बुद्धिमत्ता : बचपन से ही एक मनुष्य में भावनात्मक बुद्धिमत्ता जागृत करनी होगी। बच्चों को यह सिखाना होगा कि किसी और की सफलता उनकी अपनी हार नहीं है। उन्हें यह समझाना होगा कि एक स्वस्थ समाज वही होता है, जहाँ हम एक-दूसरे को ऊपर उठाते हैं, न कि गिराते हैं।
★ इतिहास से सीख : स्वतंत्रता संग्राम इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जहाँ विभिन्न समुदायों ने एकजुट होकर एक साझा उद्देश्य के लिए संघर्ष किया। इसी तरह, आज भी हमें विभाजनकारी प्रवृत्तियों को त्यागकर एकता और सहयोग को प्राथमिकता देनी होगी।
★ समुदाय स्तर पर काउंसलिंग और मानसिक स्वास्थ्य अभियान : ये जरूरी है ताकि लोग आत्ममूल्यांकन कर सकें और अपने भीतर की कुंठाओं को समझें। समाज की चेतना को तभी बदला जा सकता है जब व्यक्ति अपने भीतर झांके और यह स्वीकार करे कि दूसरों का दुख कभी किसी की सच्ची खुशी नहीं हो सकता।
हमारी खुशियाँ दूसरों की तकलीफ पर नहीं, बल्कि हमारी और हमारे समाज की सामूहिक उन्नति पर आधारित होंगी। केवल तभी हम एक ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं जो सशक्त, संवेदनशील और सच में विकसित हो।
★◆★◆★◆★◆★◆★◆★◆★◆★◆★◆★◆★
Comments
Post a Comment