खामोशियां बोलती हैं
खामोशियां बोलती हैं .....!!
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वैश्विक ताक़तें, इंसानियत और और सियासी फायदे के लिए क़त्ल-ए-आम.........इस वक़्त दुनिया एक अजीब मोड़ पर खड़ी है — इंसानियत के ख़िलाफ़ जुर्म का ऐसा सिलसिला जारी है जहाँ लाखों बेगुनाह इंसान अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं, और वैश्विक ताक़तें या तो ख़ामोश तमाशाई बनी हुई हैं या इन जुल्म करने वालों की हमदर्द और मददगार। जहाँ इंसानी जान की कोई क़ीमत नहीं बचती है।
ये सब कुछ दुनिया की बड़ी ताक़तों की मौजूदगी में और कहीं-कहीं उनकी सरपरस्ती में हुआ। बाद में बस अदालत-अदालत का ड्रामा खेला जाता है, जिसमें सिर्फ़ दो पक्ष को ज़िम्मेदार माना गया। यह ये साबित करता है कि अदालतें भी अब सियासत का हिस्सा बन चुकी हैं और इंसाफ़ अब किसी मज़लूम की पुकार नहीं, बल्कि ताक़तवर की सहूलत से तय हुआ एक निर्णय होता है जो कमजोर के विरोध में ही होता है।
दो देशों की जंग में बरसों से इंसानियत का गला घोंटा जाता रहा है।और इसमें मरने वाले वो हज़ारों औरतें और मासूम बच्चे शामिल हैं। जिनका युद्ध से कोई लेना देना नहीं। लाखों ज़ख़्मी होते हैं। और पूरी आबादी बेघर और भूखी बन जाती है। इस त्रासदी को झेलने वाले देशों से परे बाक़ी दुनिया सिर्फ बयानबाज़ी कर के अपने ज़मीर का बोझ हल्का कर रही है। जब सियासतों में इंसान की जान से ज़्यादा अहमियत तेल, हथियार और जमीन को मिल जाए, तो फिर अर्थियों, जनाज़ों की तादाद सिर्फ़ एक आँकड़ा बनकर रह जाती है।
सबसे बड़ा सवाल: ये कौन है जो लाखों इंसानों की मौत का फ़ैसला करता है और दुनिया की तमाम हुकूमतें उसकी बात सुनकर चुपचाप बैठ जाती हैं? क्या ये कोई एक शख़्स है? या कोई ख़ुफ़िया गठबंधन जो अपने सियासी मंसूबों और फौजी मजबूती के लिए इंसानियत को कुचल रहा है? क्या ये सारी दुनिया एक ऐसे खेल में शामिल हो चुकी है जहाँ मासूमों की लाशें सिर्फ़ “कोलैटरल डैमेज” हैं ? ?
जब तक हम इस सवाल का जवाब ढूँढने की कोशिश नहीं करेंगे, तब तक ये कत्लेआम नहीं रुकेगा। और ये जवाब सियासतों को ढूंढना होगा। क्योंकि उन्हें अपना राज चलाने के लिए आम जनता की जरूरत है। जब वो हीनहीँ रहेगी तो तुम राज किस पर करोगे।
आज वक़्त है के दुनिया भर के लोगों को,और ज़मीर वालों को एकजुट होकर इन ज़ुल्मों के खिलाफ़ बोलना होगा। इंसानी जान की क़ीमत बेहिसाब है, और इंसाफ़ के नाम पर जो मज़ाक़ हो रहा है, उसे रोका जाना चाहिए। अदालते अगर वाक़ई अदालत हैं, तो उन्हें आम लोगों की स्थितियों की हकीकत के साथ खड़ा होना होगा न कि सिर्फ़ ताक़तवरों के रुतबे और दबाव के साथ।
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