परिवार के अस्तित्व पर ख़तरा
परिवार के अस्तित्व पर ख़तरा :
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परिवार, समाज की वह छोटी इकाई है, जिसे हमेशा से स्नेह, विश्वास और सुकून का प्रतीक माना गया है। लेकिन आज भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में यह संस्था संकट के दौर से गुजर रही है। खबरों में कभी पत्नी द्वारा पति की हत्या या उत्पीड़न की घटनाएं सुर्खियां बनती हैं, तो कभी पतियों द्वारा पत्नियों के खिलाफ हिंसा की बात सामने आती है। यह सच है कि पुरुष-प्रधान समाज में लंबे समय तक पत्नियों के खिलाफ हिंसा को सामान्य मान लिया गया था, लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। दोनों पक्षों में असंतोष, अविश्वास और तनाव बढ़ता जा रहा है। पुरुष नींद की गोलियों के सहारे रात गुजार रहे हैं और घर से बाहर ज्यादा समय बिताने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर, पत्नियां शिकायतों के बोझ तले दबी हैं, मानो सदियों की कुंठा एक साथ बाहर आ रही हो। एकल परिवार हों या संयुक्त, हर घर के भीतर तनाव का लावा उबल रहा है। लोग हैरान हैं कि आखिर परिवार जैसी पवित्र संस्था अचानक इतनी मैली कैसे हो गई कि इसका सुकून और चैन गायब हो गया.....!
इस संकट की जड़ को समझने के लिए हमें समाज के व्यापक ढांचे पर नजर डालनी होगी। परिवार समाज का ही एक हिस्सा है। अगर समाज में नफरत, असुरक्षा और अविश्वास का माहौल हो, तो परिवार उससे अछूता कैसे रह सकता है? आज समाज में हर तरफ तनाव और असुरक्षाबोध हावी है। चाहे वह परिवार के भीतर संपत्ति को लेकर झगड़े हों या रिश्तों में बढ़ती खटास, हर तनाव की जड़ में कहीं न कहीं आर्थिक असुरक्षा या सामाजिक दबाव छिपा है। लोग संपत्ति, नौकरी और भविष्य की अनिश्चितता को लेकर डरे हुए हैं। यह असुरक्षाबोध सिर्फ परिवारों तक सीमित नहीं है। सड़कों पर हथियार लिए दंगाई बने युवाओं की भी एक बड़ी समस्या बेरोजगारी है। उनकी हिंसा और आक्रोश का मूल भी वही असुरक्षा है, जो उन्हें स्थिरता और सम्मान से वंचित कर रही है।
इस संकट को और गहरा करने में सियासत का भी बड़ा हाथ है। राजनीति पहले संकट पैदा करती है, फिर लोगों को तरह-तरह से भयभीत करती है और अंत में इन मानवीय संकटों को कारोबार में बदल देती है। बाजार के लिए हर संकट एक अवसर है। तनावग्रस्त लोग हों या टूटते परिवार, बाजार ने हर दुख के लिए उत्पाद तैयार कर रखे हैं—चाहे वह नींद की गोलियां हों, मनोरंजन के साधन हों या फिर तथाकथित खुशी बेचने वाले विज्ञापन। लेकिन बाजार को मुनाफे की चिंता है, आपके सुकून की नहीं।
कई लोग सोचते हैं कि शादी न करके, पार्टनर से अलग होकर या सन्यास लेकर वे इस तनाव से मुक्ति पा लेंगे। लेकिन यह भ्रम है। जब पूरा समाज ही संकटग्रस्त हो, तो उसमें रहने वाला कोई भी व्यक्ति इसकी चपेट से नहीं बच सकता। चाहे आप अकेले रहें, परिवार में रहें या समाज से कटकर, असुरक्षा और तनाव का यह जाल हर जगह फैला हुआ है। इसका समाधान व्यक्तिगत पलायन में नहीं, बल्कि समाज के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन में है।
जब तक समाज में नफरत, असमानता और असुरक्षा की जड़ें मजबूत हैं, तब तक न तो व्यक्ति सुखी हो सकता है, न परिवार और न ही समाज। जरूरत है ऐसी व्यवस्था की, जो बेरोजगारी, आर्थिक असमानता और सामाजिक नफरत को कम करे। जरूरत है आपसी विश्वास और सहयोग को बढ़ाने की। अगर हम चाहते हैं कि परिवार फिर से सुकून का ठिकाना बने, तो हमें समाज को बदलना होगा। यह बदलाव आसान नहीं है, लेकिन इसके बिना न तो परिवार का चैन लौटेगा और न ही समाज का। आखिर में, यह सवाल हम सबके सामने है—हम बाजार की चिंता में क्यों डूबे हैं, जबकि हमें अपने और अपने समाज के सुकून की फिक्र करनी चाहिए.....?
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