मन बंजर और धरती गीली
मन बंजर और धरती गीली
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कई सदियों से आंखों में जो अश्रु समेट कर रखे थे
फूट कर रोये तो मन बंजर हो गया और धरती गीली
किसी से कह सुन नहीं पाए जो अनकहा सा रह गया
बस अंदर ही अंदर हर बात हलाहल की तरह पी ली
एक तूफान सा आया और हम झोंके की तरह बह गए
जब निकली वो ज़ज्ब की हुई घुटन तब मिली तसल्ली
इस अकेलेपन ने बहुत सुकूँ दिया जो खुल कर रो पाये
बिना किसी लिहाज के अन्दर की भड़ास यूं निकली
फ़ासलों ने हमें स्वतंत्र बनाके निर्भरता से विमुख किया
अब कांधे की जरूरत नहीं हम ही हैं खुद की सहेली
~ जया सिंह ~
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