निजता और सहयोग - क्या महत्वपूर्ण ?
निजता और सहयोग- क्या महत्वपूर्ण ?
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पुराने समय में लोग सामाजिक प्राणी बन कर जीते थे। चौपालों , आंगन और बाग बागीचों में साथ बैठना। कुछ उनकी सुनना कुछ अपनी कहना। इसी से मन लगा रहता था। पर अब सब कुछ बदल गया। मनुष्य निजी हो गया है। सिर्फ खुद तक। और अब उसका यही निजी होने का विस्तार दूसरों की सीमाओं का उल्लंघन कर रहा।
मनुष्य जब तक व्यक्तिगत नहीं जाता था तब तक सब ठीक चल रहा है पर जैसे ही मनुष्य ने व्यक्तिगत जीने की आदत डाल ली अपना निजी हक समझकर के, तब से वह दूसरों की जिंदगियों से खेलता आ रहा है अर्थात् उनका शोषण करता आ रहा है। मनुष्य की समस्या क्या है। समस्या कोई जन्मजात या By default नहीं मिली, बल्कि खुद ही मनुष्य ने जनित की है, वह है और ज्यादा और ज्यादा की मांग। वह थोड़ा भी देना नहीं चाहता है लेकिन ज्यादा से ज्यादा लेना चाहता है। और ज्यादा पैसा संपत्ति सेक्स सुख लड़कियां मौज मस्ती ताकत पद रोब जितना हो सके ज्यादा से ज्यादा सब कुछ चाहिए इस मनुष्य को। अंतहीन कामनाएं और महत्वकांक्षाएं........
कभी जिओ और जीने दो वाला मंत्र हुआ करता था। अब लोग इसका पालन नहीं करते है अपितु इसका उल्टा करते है। इंसान को समझने जानने की अपनी जिज्ञासा खत्म हो चुकी है। क्योंकि निष्कर्ष यही है कि इंसान अपनी प्रजाति का भी सगा नहीं है।
आज की जिदंगी में दान और मदद दोनो ही शब्दों का अस्तित्व नहीं है। दोनो ही शब्दों द्वारा ये जताया जाता है कि आपने ऐसा करके किसी के ऊपर कोई अहसान किया हो। इसके बजाय अगर सहयोग शब्द का इस्तेमाल किया जाए तो कितना अच्छा होगा।। क्योंकि किसी को आपसे अहसान दान मदद नहीं चाहिए बल्कि सहयोग चाहिए। अपनी जिंदगी से जो आप दोगे, आप वही हो, इसके अलावा आप कुछ भी नहीं...ये सोच कर जिया जाए तो जिंदगी की सार्थकता सिद्ध होती है।
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