नफरतों के चेहरे ढूंढ लिए...पर इंसानियत के ? ?
नफरतों के चेहरे ढूंढ लिए...पर इंसानियत के ? ?
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कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले से पूरा देश हतप्रभ है। सैलानियों और पर्यटकों को निशाना बनाना दुःखद है। उन्हें स्थानीय राजनीति और सीमाओं के विवादों से कोई लेना देना नहीं होता। जिंदगी के कुछ पल बेहद खुशगवार करने के नाते वह किसी जगह पर कुछ दिनों के लिए आते हैं। जाके पैर ना फटी बिवाई। वो क्या जाने पीर पराई।। अर्थात जिनके घर का कोई गया हो उनसे जाने वाले के लिए दर्द की इंतहा पूछिये.... कितना खुद को कोस रहे होंगे कि क्यूं भेजा उस अपने को मरने के लिए। इस घटना के लिए अकेले आतंकवादी ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि वो राजनीतिक सिस्टम भी है जो अपनी जगह बनाये रखने के लिए कितनी भी बालियां स्वीकार कर सकता है।
किसी देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह होता है कि वहां का नागरिक यह मान जाए कि छोड़ो यारो , ये जो तेजाब की धारा बह रही है इसकी चाल बदलकर भी कोई फायदा नहीं ,क्योंकि यहां तेजाब के अलावा कुछ नहीं मिल सकता। ये भी किसी देश के लिए दुर्भाग्य ही है जब देश उस मोड़ पर खड़ा रहे जहां हर व्यक्ति दिल में दर्द तो है ,लेकिन यह दर्द और गुस्सा कहाँ निकालना चाहिए यह चुनाव करने में उसके मन में द्वंद है । बुरी घटनाएं बुरी ही रहेंगी, उसके अनुपात में उससे बड़ी बुरी घटना का जिक्र करने से वह अच्छी नहीं बनेगी। भले ही क्रिया की प्रतिक्रिया में ये सारे देश का माहौल विषैला हो जाये पर नफरत और गुस्से की आग थमने का नाम नहीं ले रही हो। असल बात तो यह है कि ना इधर दुख है ना उधर, दुःखी तो वो हैं जिन्होंने अपना खोया है , बाकी तो सब शब्दबाणों से अपनी-अपनी गाये जा रहे हैं , कोई किसी को दोष दे रहा है तो कोई किसी को। लेकिन ठीक वही बात है कि हम से कोई भी उस तेजाब की धारा को बदल नहीं सकते और अगर बदल भी दिया तो भी फायदे में नहीं रहेंगे । जब हम यह ठान लेंगे की कट्टरता के नाम पर चिह्नांकन कर कत्लेआम हो रहा कर रहा है तो उसका गुस्सा और इल्ज़ाम हम अपने आस -पास के किसी लोगों के सिर पर धरने की कोशिश करने लग जाएंगे । इस स्थिति में हम चाहकर भी बदलाव नहीं कर पाएंगे । धर्म के नाम पर जो कत्ल किए जाएंगे तो ये यह सिलसिला कल भी चलता रहेगा । और हर आम आदमी इस नफरत का हर्जाना भरता जाएगा ।
क्या और कैसे साबित करेंगे कि फ़र्क़ नहीं पड़ता ? क्या हमें यह नहीं पता कि हम आपस में कैसे हैं ? खुद को ही सही साबित करके किसकी मानसिकता बदलने पर लगे हुए हैं ? बड़ा ख़राब माहौल हो चुका है , इस दौर में कौन किसे मार दे पता नहीं , कल को क्या पता हमें भी कोई नफरती भरे बाजार में मार कर चला जाए। फिर हम भी केवल सोशल मीडिया की पोस्टों और लोगों के भाषणों में सिमट कर रह जाएंगे , लेकिन इसका हल नहीं ढूंढा जाएगा ! क्योंकि हल कोई भी देश ढूंढना भी नहीं चाहते । खून और नफरत का बदला जब तक खून और नफरत से देते रहेंगे तब तक यही हालात रहेंगे । लोग नफरतों की सूरत ढूंढने में लगे हुए हैं... इंसनायित की नहीं । होना तो यही चाहिए कि जो जहां रहता है उसे वहां के लोगों के बीच ये साबित करने की कोशिश ना करें कि हम कैसे हैं। इसलिए जरूरी है कि खुद का औऱ अपने परिवार का ख्याल रखा जाए। यह दौर लोगों को नफ़रत की बलि चढ़ने को उकसा रहा। और इससे नफ़रत फैलाने वालों का कुछ नहीं बिगड़ेगा । इसलिए सोशल मीडिया की स्टोरी औऱ स्टेटस चेक करते रहें।भुलावे और भ्रम में ना जियें। आजकल असल बुराई तो यहीं से शुरू हो रही है।
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