भारतीय प्रथाओं का सामयिक विश्लेषण ..........!
अगर माने तो भारतीयता कही न कही हर भारतीय के अंदर रहती है। पर उसे खुल कर अपनाने और स्वीकार करने में उसे शर्मिंदगी महसूस क्यों होती है ? इसका कारण है बढ़ता पाश्चात्य प्रभाव। हर कोई खुद को ज्यादा modern और advance दिखाने के चक्कर में अपनी संस्कृति की अहम खासियतों को कही पीछे छोड़ देता है। जिस से उसका व्यक्तित्व दो संस्कृतियों की खिचड़ी बन कर रह जाता है। चलिए आज अपनी भारतीय संस्कृति की कुछ खास विशेषताओं पर गौर कर के ये जानते हैं कि वह क्यों और किस लिए अपनाई जाती थी। सब से पहले एक प्रथा की चर्चा करें जिस में पटले पर बैठ कर खाना खाते थे और खाने से पहले आचमन के जरिये थाली के इर्द गिर्द जल का छिड़काव करते थे। ये पुरानी प्रथा है पर गावों में आज भी प्रचलित है। पटले पर बैठ कर खाने से तात्पर्य अन्न देवता को सम्मान देने से था और जल छिड़कने का तात्पर्य थाली के आस पास की मिटटी को गीली कर नम बनाने से था जिस से वह उड़ कर खाने में न आये। इस प्रथा से धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों पक्ष उजागर होते थे। इसी तरह हम किसी नदी के पास से गुजरते है तो उसमे सिक्का डाल कर जल देवी को सम्मान देते है जबकि ये पुरातन काल में ज्यादा प्रासंगिक थी। उस समय तांबे के सिक्के प्रचलन में थे और तांबा पानी को शुद्ध करने का कार्य करता है। तांबे के सिक्के नदी में डालने से धार्मिक व सामाजिक दोनों पक्ष उजागर होते थे। इसी तरह भारतीय संस्कृति में कभी भी उलटे हाथ या बाएं हाथ से मेहनताना नहीं ग्रहण करते क्योकि सीधे या दायें हाथ को धन की देवी लक्ष्मी जी का सहोदर माना जाता है। मदिर में चढ़ावा और प्रसाद ग्रहण करने के लिए भी सीधे हाथ का ही प्रयोग किया जाता है। इसी तरह एक प्रथा और प्रचलन में है कि किसी को भी चाकू छुरी या कैंची पकड़ते समय उसका नुकीला हिस्सा अपनी तरफ रखना चाहिए। यह सामाजिक और धार्मिक दोनों नजरिये से उपयुक्त माना जाता है। जिस का तात्पर्य है कि किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा कभी भी मन में नहीं रखों। ऐसी बहुत सी और भी प्रचलित प्रथाएं है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। जरूरत है उन्हें अपनाने की और भारतीय बनने की। हम ने अगर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने के लिए प्रयास किये है तो उन से भारतीयता को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। क्योंकि जब तक आप में भारतीयता जिन्दा है आप सही मायनों में अपने देश में जी रहें है। मैं ऐसा मानती हूँ की किसी भी संस्कृति की कोई भी अच्छी बात हो उसे अपनाने में पहल करना काबिलेतारीफ कदम हो सकता है। ………
अगर माने तो भारतीयता कही न कही हर भारतीय के अंदर रहती है। पर उसे खुल कर अपनाने और स्वीकार करने में उसे शर्मिंदगी महसूस क्यों होती है ? इसका कारण है बढ़ता पाश्चात्य प्रभाव। हर कोई खुद को ज्यादा modern और advance दिखाने के चक्कर में अपनी संस्कृति की अहम खासियतों को कही पीछे छोड़ देता है। जिस से उसका व्यक्तित्व दो संस्कृतियों की खिचड़ी बन कर रह जाता है। चलिए आज अपनी भारतीय संस्कृति की कुछ खास विशेषताओं पर गौर कर के ये जानते हैं कि वह क्यों और किस लिए अपनाई जाती थी। सब से पहले एक प्रथा की चर्चा करें जिस में पटले पर बैठ कर खाना खाते थे और खाने से पहले आचमन के जरिये थाली के इर्द गिर्द जल का छिड़काव करते थे। ये पुरानी प्रथा है पर गावों में आज भी प्रचलित है। पटले पर बैठ कर खाने से तात्पर्य अन्न देवता को सम्मान देने से था और जल छिड़कने का तात्पर्य थाली के आस पास की मिटटी को गीली कर नम बनाने से था जिस से वह उड़ कर खाने में न आये। इस प्रथा से धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों पक्ष उजागर होते थे। इसी तरह हम किसी नदी के पास से गुजरते है तो उसमे सिक्का डाल कर जल देवी को सम्मान देते है जबकि ये पुरातन काल में ज्यादा प्रासंगिक थी। उस समय तांबे के सिक्के प्रचलन में थे और तांबा पानी को शुद्ध करने का कार्य करता है। तांबे के सिक्के नदी में डालने से धार्मिक व सामाजिक दोनों पक्ष उजागर होते थे। इसी तरह भारतीय संस्कृति में कभी भी उलटे हाथ या बाएं हाथ से मेहनताना नहीं ग्रहण करते क्योकि सीधे या दायें हाथ को धन की देवी लक्ष्मी जी का सहोदर माना जाता है। मदिर में चढ़ावा और प्रसाद ग्रहण करने के लिए भी सीधे हाथ का ही प्रयोग किया जाता है। इसी तरह एक प्रथा और प्रचलन में है कि किसी को भी चाकू छुरी या कैंची पकड़ते समय उसका नुकीला हिस्सा अपनी तरफ रखना चाहिए। यह सामाजिक और धार्मिक दोनों नजरिये से उपयुक्त माना जाता है। जिस का तात्पर्य है कि किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा कभी भी मन में नहीं रखों। ऐसी बहुत सी और भी प्रचलित प्रथाएं है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। जरूरत है उन्हें अपनाने की और भारतीय बनने की। हम ने अगर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने के लिए प्रयास किये है तो उन से भारतीयता को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। क्योंकि जब तक आप में भारतीयता जिन्दा है आप सही मायनों में अपने देश में जी रहें है। मैं ऐसा मानती हूँ की किसी भी संस्कृति की कोई भी अच्छी बात हो उसे अपनाने में पहल करना काबिलेतारीफ कदम हो सकता है। ………
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