कमजोर कानूनी नियमों से जूझती स्त्री ………!
भारतीय व्यवस्था की खामियां ही उसे खोखला बना कर कमजोर करती है। कितने भी बेहतर नियमों की नीवं क्यों ना रख दी जाये पर एक नियम की पालना को बाधित करने के लिए कोई न कोई ऐसा नियम आगे खड़ा मिलता है जो उसका रास्ता रोकता है। कल के ही समाचार पत्र में पढ़ा कि एक अविवाहित सरकारी महिला अफसर ने एक बेटी गोद ली और उसका पालन पोषण कर के उसे बड़ा कर लिया। अब वह एक और पुत्री को अपनाना चाहती है जिसे वह अपनी बड़ी बेटी को बहन के रूप में दे सके। पर कानून ने उसे दो पुत्रियों को एक साथ रखने से मना कर दिया और कहा की वह एक लडका गोद ले सकती है। इस घटना ने दो प्रतीकात्मक अप्रिय संयोगों को जन्म दिया। पहला ये कि बेटियों को ऊँचा दर्जा देने वाले कानून ने अपंने ही नियम से एक बेटी की अवहेलना कर दी। क्या होता अगर वह महिला अधिकारी दो बेटियों को पाल लेती ? एक अनाथ बच्ची का भविष्य संवर जाता और एक बहन को बहन मिल जाती।
वैसे भी अनाथालयों में कन्या संतानों की अधिकता रहती है। बेटे के लिए तो वैसे भी कन्याएं भ्रूण में ही मार दी जाती है। मेरी समझ से परे है क़ानून की ये दलील। उसके इस फैसले से एक और जो सत्य सामने आया की उसे ऐसा लगता है कि एक साथ रह रही तीन महिलाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं है। एक अकेली महिला अपनी दो बच्चियों के साथ अपना लम्बा भविष्य अकेले कैसे जियेगी ? ऐसे में उन के साथ एक पुरुष के सहारे का होना आवश्यक है। और वह बड़ा हो कर वह बालक बन सकता है। क्या वाकई कानून औरत को इतना कमजोर समझता है ? इस फैसले से कई प्रश्न खड़े हुए और मुझे लगता है कि उनके जवाब कानून के पास भी नहीं होंगे क्योंकि कई फैसले तो इस लिए हो जाते है कि पहले से कानून की किताब में लिखा हुआ हैं। उनका वर्तमान परिदृश्य में क्या प्रभाव है ये नहीं सोचा जाता। ढोल ,गवांर ,शूद्र ,पशु ,नारी , ये सब ताड़न के अधिकारी। तुलसीदास जी के इस दोहे ने हो सकता है कि समय के साथ अपन प्रभाव कम कर दिया हो पर आज भी मानसिकता से मिट नहीं पाया है । कही न कही पुरुष द्वारा प्रताड़ित होती महिला या कमतर आंकी जाने वाली मानसिकता समाज में बरकरार हैं। आप खुद सोचें कि क्यों कोई महिला कुछ नया करती है तो चर्चा बन जाती है और वही पुरुष करें तो आम। अभी अभी एक समाचार के जरिये पता चला कि अब war ship में स्त्रीयों की भर्ती प्रारम्भ होने जा रही है जिस के लिए जहाजों में माकूल परिवर्तन किया जाएंगे। मुझे ये सुन कर अजीब लगा क्योंकि आज की औरत वह हर कार्य कर सकती है जो की एक पुरुष तो पहले तो उसे special treatment दे कर अलग अहसास कराना जरूरी नहीं। दूसरे यदि आप एक महिला की सुविधा के लिए ऐसा कर भी रहें हो तो उसे समाचार बनाना जरूरी नहीं। उसे भी पुरुष की ही तरह ताकतवर और मजबूत रहने दीजिये और वह है। उसे कमजोर आंकना कानून की एक बड़ी खामी है जिसे उसे सुधारना चाहिए।
भारतीय व्यवस्था की खामियां ही उसे खोखला बना कर कमजोर करती है। कितने भी बेहतर नियमों की नीवं क्यों ना रख दी जाये पर एक नियम की पालना को बाधित करने के लिए कोई न कोई ऐसा नियम आगे खड़ा मिलता है जो उसका रास्ता रोकता है। कल के ही समाचार पत्र में पढ़ा कि एक अविवाहित सरकारी महिला अफसर ने एक बेटी गोद ली और उसका पालन पोषण कर के उसे बड़ा कर लिया। अब वह एक और पुत्री को अपनाना चाहती है जिसे वह अपनी बड़ी बेटी को बहन के रूप में दे सके। पर कानून ने उसे दो पुत्रियों को एक साथ रखने से मना कर दिया और कहा की वह एक लडका गोद ले सकती है। इस घटना ने दो प्रतीकात्मक अप्रिय संयोगों को जन्म दिया। पहला ये कि बेटियों को ऊँचा दर्जा देने वाले कानून ने अपंने ही नियम से एक बेटी की अवहेलना कर दी। क्या होता अगर वह महिला अधिकारी दो बेटियों को पाल लेती ? एक अनाथ बच्ची का भविष्य संवर जाता और एक बहन को बहन मिल जाती।
वैसे भी अनाथालयों में कन्या संतानों की अधिकता रहती है। बेटे के लिए तो वैसे भी कन्याएं भ्रूण में ही मार दी जाती है। मेरी समझ से परे है क़ानून की ये दलील। उसके इस फैसले से एक और जो सत्य सामने आया की उसे ऐसा लगता है कि एक साथ रह रही तीन महिलाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं है। एक अकेली महिला अपनी दो बच्चियों के साथ अपना लम्बा भविष्य अकेले कैसे जियेगी ? ऐसे में उन के साथ एक पुरुष के सहारे का होना आवश्यक है। और वह बड़ा हो कर वह बालक बन सकता है। क्या वाकई कानून औरत को इतना कमजोर समझता है ? इस फैसले से कई प्रश्न खड़े हुए और मुझे लगता है कि उनके जवाब कानून के पास भी नहीं होंगे क्योंकि कई फैसले तो इस लिए हो जाते है कि पहले से कानून की किताब में लिखा हुआ हैं। उनका वर्तमान परिदृश्य में क्या प्रभाव है ये नहीं सोचा जाता। ढोल ,गवांर ,शूद्र ,पशु ,नारी , ये सब ताड़न के अधिकारी। तुलसीदास जी के इस दोहे ने हो सकता है कि समय के साथ अपन प्रभाव कम कर दिया हो पर आज भी मानसिकता से मिट नहीं पाया है । कही न कही पुरुष द्वारा प्रताड़ित होती महिला या कमतर आंकी जाने वाली मानसिकता समाज में बरकरार हैं। आप खुद सोचें कि क्यों कोई महिला कुछ नया करती है तो चर्चा बन जाती है और वही पुरुष करें तो आम। अभी अभी एक समाचार के जरिये पता चला कि अब war ship में स्त्रीयों की भर्ती प्रारम्भ होने जा रही है जिस के लिए जहाजों में माकूल परिवर्तन किया जाएंगे। मुझे ये सुन कर अजीब लगा क्योंकि आज की औरत वह हर कार्य कर सकती है जो की एक पुरुष तो पहले तो उसे special treatment दे कर अलग अहसास कराना जरूरी नहीं। दूसरे यदि आप एक महिला की सुविधा के लिए ऐसा कर भी रहें हो तो उसे समाचार बनाना जरूरी नहीं। उसे भी पुरुष की ही तरह ताकतवर और मजबूत रहने दीजिये और वह है। उसे कमजोर आंकना कानून की एक बड़ी खामी है जिसे उसे सुधारना चाहिए।
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