मुक्ति का सच : बंधनों की पहचान
मुक्ति का सच : बन्धनों की पहचान ••••••••••••••••••••••••••••••••
अमूमन हर मनुष्य मुक्ति चाहता है। लेकिन वह अपने बन्धनों को नहीं पहचानता क्योंकि असल बंधन तो उसकी सोच पर है। मस्तिष्क मुक्त होने को ही असली मुक्ति कहते हैं। और इसके लिए बहुत आंतरिक साहस की जरूरत होती है। क्योंकि हमें अपने सभी बंधन बहुत प्यारे हैं। जिन्हें हम चाहकर अपने इर्द गिर्द बनाये रखना चाहते हैं। उन सभी बंधनों को बहुत पवित्र और महान मानकर सोच को गुलाम बनाया जाता है।
जैसे कि हम एक खास मजहब में पैदा होने की वजह से खास तरीके से सोचते हैं, जीते है। हमारी परंपराएं, संस्कृति सब उसी धर्म या मज़हब के अनुसार तय की जाती है।
उसी तरह हम एक ख़ास जगह पैदा होने की वजह से उस जगह को महान मान कर दूसरों को हीन मानने लगते हैं। ये नैसर्गिक है क्योंकि अपनी चीज़ को सर्वश्रेष्ठ कहना और मानना ही खुद को जीवित रखने के लिए आवश्यक है।
हमारा रंग हमारी शख्सियत को ऊंचा या नीचा बनाता है। समाज में चमड़ी के रंग का भी विशेष महत्व है।
अगर मर्द का शरीर मिला तो हमारी सोच एक ख़ास तरीके की हो जाती है। और अगर औरत बनकर जन्म लिया तो हमें कुछ अलग तरीके से सोचने के लिए तैयार किया जाता है।
अब अगर इंसान के रूप में पैदा हुए हैं तो खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए दूसरे जीवो को कमतर माना जाए।
यही है वो तमाम बन्धन जो कि इंसान ढोते हुए ताउम्र जीता है। जब इंसान अपने दिमाग में अपनी सोच को बांधने वाले इन बंधनों को पहचानता है तो क्यों नहीं हिम्मत के साथ इन्हें बंधनों के रूप में कबूल करते हुए इन पर ध्यान देकर इनसे आजाद हो जाता है ? ?
वह मुक्त क्यों नहीं हो जाता है......क्योंकि यह बिल्कुल भी आसान नहीं है !!
इन्हें इन बंधनों में जकड़ें रहकर अपनी शख्सियत को पहचान देनी होती है। इन बंधनों से मुक्ति का मतलब भीड़ में अस्तित्वहीन जीने के सामने होगा। जो कि इन्हें कबूल नहीं। इसीलिए इन्हें मुक्ति के आनंद का कभी पता ही नहीं चलेगा। जकड़न ही उनकी नियति है। और इसी नियति में उनका जीवन घिसटता रहता है।
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