इतनी हैरत क्यों ? ?
इतनी हैरत क्यों...? ?
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आख़िर इतनी हैरत क्यों है
अगर टूटे हैं......तो चुभेंगे
अमूमन दुःख गूंगे होते हैं
सुख के संग तो रेले चलेंगे
बोझ बन जाने से बेहतर तो
याद बन कर जीना लगा...
जहां अल्फाजों की क़ीमत नहीं
वहां ख़ामशी के मंजर रहेंगे
हर बार कसूर इंसान का नहीं
जिंदगी भी धोखेबाजी करती है
ख़ास होने का भरम व्यर्थ पाला
मामूली जिये और मामूली मरेंगे
हर महीने लौटती है वो तारीख़
पर वो वक्त वो मंजर नहीं लौटता
एक बार पत्ते पीले पड़ने शुरू हुए
तो बसंत में भी वह नहीं बचेंगे...
~ जया सिंह ~
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