तुलना - लेकिन खुद से
तुलना- लेकिन ख़ुद से : ••••••••••••••••••••••
हम सभी अद्वितीय क्षमताओं, प्रतिभाओं और संभावनाओं से भरपूर हैं। जीवन में ऊपर उठना या खुद को संकुचित रखना ये हमारा व्यक्तिगत निर्णय होता है। खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरों से तुलना उचित नहीं होती। क्योंकि तुलना हमारी नैसर्गिक गुणों पर पर्दा डालने का कार्य करती है। हमारा मूल्य इस लिए तय नहीं होता कि लोग हमें किस दृष्टि से परखते हैं बल्कि उसके लिए हमारे आचरण की निष्ठा और विनम्रता मायने रखती है।
अमूमन तुलना करने की प्रवृत्ति हमारे अन्तस् में बैठी रहती है और दूसरे को ऊंचा उठते देख ये ईष्या और जलन के रूप में प्रकट होती है। तब हम ये मानकर चलते है कि सफलता एक सीमित संसाधन है। जिसे हमसे कोई बांट या छीन रहा है। हमें ये भय सताने लगता है कि अगर दूसरे को अधिक सफलता मिल गयी तो हमारे ऊंचे उठने का मौका छीन जाएगा। हमारी छवि धूमिल हो जाएगी। साथ ही ये भ्रम भी उत्पन्न होने लगता है कि मैं काबिल नहीं हूं। ये संशय व्यक्तित्व के क्षरण का कारण बनने लगता है।
व्यापारिक और सामाजिक परिवेश में अक्सर वर्चस्व की होड़ देखने को मिलती रहती है। प्रतिस्पर्धा के बजाए अगर खुद को पहले से ज्यादा परिष्कृत करने में लगाया जाए तो ये कुढ़न खत्म की जा सकती है। पर जब हम खुद को सर्वश्रेष्ठ मानकर उससे बेहतर बनने के लिए आगे ही नहीं बढेंगे तो ये होगा ही कि कोई और थोड़ी और संभावनाओं के साथ हमसे आगे निकल गया।
ईश्वर की ही ऊर्जा हर किसी में प्रवाहित हो रही है। सब उसी शक्ति से कार्य कर रहे हैं।बस उस शक्ति में अपनी जिजीविषा और साहस मिलाने से परिणाम अलग अलग आने लगते हैं। सफलता उसी परम स्त्रोत से लोगों तक पहुंच रही। भगवान ही वह मूल शक्ति स्रोत है जिससे सभी प्राणियों और वस्तुओं को उनकी तेजस्विता , विशिष्टता और क्षमता प्राप्त होती है। और ये भी सत्य स्वीकारना होगा कि ईश्वर किसी में भी भेदभाव नहीं रखते। अगर हम किसी से ईर्ष्या रखते हैं तो ये उस दिव्य स्रोत से ईर्ष्या रखना हुआ। ये ईश्वर के प्रति अपराध है। जो आगे उसकी कृपा से वंचित कर सकता है।
हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। ईर्ष्या को प्रशंसा और सहयोग में परिवर्तित करना होगा। विश्व असीमित है और उसकी कृपा भी अंनत है। उसकी विशिष्ट चेतना से ख़ुद को भरपूर रखना ही सफल होना होगा।
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