कम से कम कानून तो अंधा बहरा ना बने

 कम से कम कानून तो अंधा बहरा ना बने ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~



प्रकृति और समाज ने उम्र के अनुसार जीवन जीने के कुछ नियम और आदर्श बनाये हैं जिन पर जीकर ही सही तरीके से जीवन को फलीभूत किया जा सकता है। पुराने ग्रंथो और पुराणों में भी जीवन को सौ वर्षों में बांट कर 25-25 साल के चार आश्रम बताए गए। पहला 25 वर्ष ब्रम्हचर्य होता है जिसमें व्यक्ति कुँवारा रहकर विद्यार्जन और फिर कार्य की शुरुआत करता है। दूसरा गृहस्थ , जब व्यक्ति विवाह करके गृहस्थी की स्थापना करता है। क्योंकि अब वह काम करने लगा है परिवार का पेट पाल सकता है। अगला 25 वानप्रस्थ आश्रम है जिसमें 50 की अवधि के बाद बच्चों और पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर मनुष्य ईश्वर में मन लगाने की शुरुआत करता है। भजन कीर्तन और पाठपूजा इत्यादि को समय देता है। अंत के 25 को संन्यास आश्रम कहते हैं जिसमें व्यक्ति पूरी तरह सांसारिक जीवन को त्यागते हुए ईश्वर की शरण में चला जाता है। 

नए दौर के नए चलन में एक नया concept आया है। live-in में रहने का। समझ नहीं आता कि शादी के पहले संग रह लेने से क्या फायदा होगा ? ? जब live-in में रहकर वही जिंदगी जीनी है जो विवाहित होकर जी जाती है। तो विवाह में क्या परेशानी है ? ? और फिर सोचने वाली बात ये की आज live-in में किसी के साथ रहकर मन नहीं लगा तो क्या कल फिर किसी दूसरे को तलाश किया जाएगा ? शायद उसके साथ पटरी बैठ जाये। 

18 साल के युवक युवती को live-in में रहने की इजाज़त अगर कोर्ट दे तो इससे ज्यादा दुःखद और क्या हो सकता है। उनकी क्या उम्र है जिंदगी को समझने की.....उनको क्या अनुभव है जिंदगी को संभालने का....उनकी क्या औकात है घर गृहस्थी को चलाने की....उनकी क्या उम्र है जिम्मेदारी से परिस्थितियों का सामना करने की.....ऐसे बहुत से सवाल है जो समाज के सामने खड़े हो जाते हैं जब अदालत के इस तरह के निर्णय सामने हो। अभिभावकों से अलग होकर छोटी उम्र में बिना शादी के संग रहने का निर्णय कितना सही होगा ये तो वक्त बताएगा। पर ज़िन्दगी जीकर समझ आती है सुनकर देखकर नहीं....जो ऊपर से अच्छा अच्छा दिख रहा हो जरूरी नहीं कि आगे भी अच्छा अच्छा ही हो। समय की धुंध बड़े से बड़े सपनों को फीका कर देती है। सिर्फ प्यार से गृहस्थी नहीं चलती। सिर्फ पैसे से भी गृहस्थी नहीं चलती। सिर्फ निर्णयों से भी गृहस्थी नहीं चलती। सिर्फ आकर्षण से भी गृहस्थी नहीं चलती।  

दो लोग जब जिंदगी की गाड़ी मिलकर चलाते हैं। तो वह शादीशुदा हो या बिना शादी के साथ रह रहे हों। सभी तरह के समझौते , इंतजामात और व्यवस्था जुटानी ही पड़ती है। ऐसा नहीं कि शादीशुदा के लिए कुछ और ......और live-in में रहने वालों के लिए कुछ और नियम होते हैं।

आधुनिकता अब अच्छी नहीं लग रही जो जीवन के मूल्यों की खाती जा रही। बस बच रही है भागती दौड़ती जिंदगी। जिसमें किसी भी चीज़ को उसके सार्थक रूप में स्वीकार करने की कोशिश ही नहीं कि जा रही। उसके सबसे बुरे स्वरूप में उसे आजमाया जा रहा है। अगर कानून भी ये नहीं समझ रहा तो ये अच्छा नहीं है। 

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