सफलता और सार्थकता ……! ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अगर मैं ये कहूँ की आजकल इंसान के पास शायद खुद के भी वक़्त निकलना मुश्किल है तो ये गलत नहीं होगा।व्यस्त जिंदगी में वह इतनी तरह की परिस्थितियों से घिरा रहता है कि उसके लिए अपने दायरे से बाहर सोच पाना लगभग नामुमकिन सा हो गया है.इसका प्रमाण आप यदा कदा हर जगह पा सकते है। ……। चाहे वह कही लाइन में लग कर भुगतान की बात हो या सिग्नल पर रुककर हरी बत्ती होने का इंतजार। इस व्यस्तता ने उसे अपने ही जीवन से प्यार करने का समय छीन लिया है। वह जी तो रहा है पर सिर्फ अच्छे दिन गुजारने के लिए न की इस जीवन की सार्थकता को सिद्ध करने के लिये। अच्छे दिन से तात्पर्य है ज्यादा पैसा ,ज्यादा आराम, ज्यादा विलासतापूर्ण जीवन और सिर्फ स्वयं से जुडी प्रगति। इस प्रगति में अगर उसके अपने कही पीछे रह भी जाएँ तो वह मुड़ कर देखने का भी समय नष्ट नहीं करना चाहता क्यूंकि उसे सबसे आगे निकलने की जल्दी जो है।इसी जल्दी ने तो उसके अंदर के धैर्य, सहनशीलता और अपनेपन के वह सारे भाव नष्ट कर दिए जो एक सार्थक जीवन के लिए जरूरी होते है। ये सार्थकता इस लिए आवश्यक नहीं की वो सफल बना रहे बल्कि इस लिए की इस सफलता को मनाने और उसका आनंद उठाने के लिए उसके आस पास कुछ लोग बने रहे।
जीवन का ये सत्य है की अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। इसलिए उसे अपने सफल और सार्थक जीवन को एक साथ ले कर आगे बढ़ना चाहिए। यही कला है की कोई इंसान दोनों परिस्थितियों को कैसे साथ ले कर एक सही पथ का निर्माण करे। समय बलवान है. पर अपनी समझ और चातुर्य से उसका सही उपयोग सफलता और सार्थकता दोनों में सामंजस्य बना सकता है।
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