पाश्चात्य मूल्यों का उचित चुनाव………!
हर स्थान की मिटटी की अलग खुशबू होती हैं। इसी विशेषता को लेकर वहां का समाज आगे बढ़ता है। एक अलग पहचान का ही नतीजा है की हर देश की संस्कृति ,पहनावा , रहनसहन ,बोलचाल ,सभी अलग होते है। ये  एक शाश्वत सत्य है की संस्कृति सभी के लिए जीवन की राह का निर्माण करती है।  उसे हम अपने प्रयोगानुसार उचित या अनुचित में बदल देते है।  आप चाहें कही भी रहे अपनी आदर्शता को बनाये रखना जितना आप के स्वयं के लिए आवश्यक है उतना ही आप के देश के लिए भी। किसी भी देश की संस्कृति उस देश में रहने वालों के लिए देश में रहने के नियमों का निर्माण करती है। हालाँकि समयानुसार उसमे बदलाव भी आता है। पर उसकी प्रकृति यानि DNA वही रहता है। यदि हम भारतीय है तो चाहे कही भी रहें कुछ न कुछ तो भारतीयता की झलक तो आएगी ही। अपने कार्य से विचारों से जीवनशैली से और पहनावे से खुद को भारतीय साबित करना स्वतः ही हो जाता है।  आज अनेकों भारतीय विदेशों में बस कर जीवन यापन कर रहे हैं। वहीँ की तरह रच बस भी गए हैं। लेकिन मन से वो खुद को आज भी अपनी  मिटटी से जुड़ा  महसूस करते होंगे। 
                     हर सस्कृति की अपनी खासियत होती है। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ में हमेशा हमने वही सब अपनाया है जिसे भारतीय संस्कृति उचित नहीं मानती और इसी वजह से  हम कई बार दूसरी संस्कृतियों  पर दोषरोपण कर देते हैं। जबकि वहां भी आप को अनेकों खूबियां मिल जायेंगी। जीवन  को खुल कर जीना ,सप्ताहांत में सारी  चिंता फ़िक्र छोड़ परिवार के साथ समय गुजरना ,रिश्तों को बोझ की तरह नहीं ढोना ,और सबसे बड़ी खूबी की किसी भी आयु के व्यक्ति का आत्मनिर्भर होना।  वहां बालक को थोड़ा बड़ा होते ही आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास प्रारम्भ कर दिए जाते है। उसे ये शिक्षा दी जाती है की अब खुद कमा कर खाने की आदत डालो। उसके लिए बहुत छोटे कार्यों से शुरुआत की जा सकती है। इस सीख से बालक अपनी जरूरतों की प्राथमिकताओं को समझना शुरू कर देता है।हमारी संस्कृति में यदि बालक कुछ  न भी करे तो भी विवाह की आयु में उसका विवाह कर उसके साथ उसकी पत्नी उसके बच्चे का भी बोझ माता पिता ढोने लगते है ये समझ कर की ये उनकी जिम्मेदारी है। विदेशी सभ्यता की एक और जो सबसे बड़ी खूबी सामने आती है वह है रिश्तों को खुल कर जीना। उनके लिए कोई भी रिश्ता जीवन से बड़ा नहीं होता। यदि ऐसा लगता है की आप उसे नहीं जी पा रहे तो बेहतर है की उसे छोड़ दें। भारतीय संस्कृति में विवाहिता जान दे देगी पर ससुराल छोड़ कर न आने की शिक्षा उसे डोली उठते ही दे दी जाती है। इसी कारण विवाहोपरांत इतनी लड़कियों की मृत्यु होती है। अन्य रिश्तों में भी इसे ऐसे देखें कि यदि माता पिता से संतान की नहीं बनती तो एक निश्चित समयोपरांत वह अलग होकर जीवन गुजरने लगता है। फिर चाहे वो किसी से भी विवाह करे कैसे भी रहे पर भारतीय संस्कृति में अलग करने के बाद भी संतान के जीवन में दखलंदाजी का हक़ माता पिता नहीं छोड़ते। विवाह के लिए जाति , धर्म, वित्तीय स्थिति शिक्षा जैसे अनेकों नियम रख दिए जाते हैं। इसे चाहे उनकी संतान निभाए या प्रतिपक्ष। 
   परिवार के साथ समय गुजरने की सही अहमियत पाश्चात्य  संस्कृति से ही पता चलती है। व्यस्तता ने साथ बैठने के जिस सुख को छीन लिया है उसे ये सप्ताहांत में कही बाहर समय गुजार कर या पिकनिक जैसा कोई आयोजन कर पूरा कर लेते है। क्योंकि इनकी सोच ये कहती है की सप्ताह के पांच दिन कड़ी मेहनत , देश के लिए करो और बाकि बचे दो दिन अपने परिवार के साथ खुल कर मौज करो।  जबकि हम पूरा  सप्ताह घर और  काम के बीच की जद्दोजहद में गुजार देते हैं। शायद इसी वजह से हम दोनों के प्रति ईमानदार नहीं हो पाते। वहां  कोई भी आयु का व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए  कार्य के प्रति ईमानदार होता है। शायद इसी वजह से आज भी भारत विकासशील और अन्य देश विकसित देशों में गिने जाते है। कार्य के प्रति आपका सजग होना अपने आप में विकास के लिए पहला कदम है इसके दो फायदे होते है पहला ये की आप अपने खर्चों के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं दूसरा आप का कार्य आप के देश को प्रगति की और ले जा रहा है। यदि कार्य से व्यक्ति संतुष्ट है तभी वह अपने परिवार को पूरी तवज्जो दे पायेगा। 
                  पाश्चात्य संस्कृति की और यदि सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो अनेकों खूबियां मिलेंगी जिसे अपनाकर आप  और समृद्ध महसूस करेंगें। चुनाव इस तरह करें की जो भी भारतीयता को अक्षम रखते हुए विकास की और ले जाये  वही सही है। ईश्वर ने सोचने समझने की  क्षमता दी है तो उसे इस तरह प्रयोग करें कि सही या गलत के चुनाव की काबिलियत निखर कर आगे आये। आप ने देखा होगा ऐसे कई विदेशियों को जो यहाँ आ कर यहाँ के पहनावे में कैसे रच बस जाते है यह उनकी संस्कृति के लिए एक सकारात्मक गुण है जिसे वो यहाँ से जोड़ कर ले जाते है। सोच और रहन-सहन का विस्तार जितना भी हो अच्छा ही होता है। परन्तु इस के विपरीत हम उनके उघड़ेपन को, स्वछन्दता को और गलत आदतों को सही मान अपना लेते है  इस से खुद को ज्यादा अग्रवर्ती और विकसित समझने की भूल गर्त में ले जाती है। जरूरत है सही चुनाव की चाहे वह किसी भी संस्कृति की हो। व्यंजनों से भरी थाली मिलने पर आप जो भी नापसंद होता है उसे हटाने का प्रयास करते है इसी तरह अनेक में से नेक का चुनाव आप को स्वयं करना है और इस तरह करना है की उसे थोपा हुआ न समझा जाए। 

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