अपनी ढपली अपना ही राग …………!
यदा कदा आपस में लड़ने वाले पशुओं में भी एक गुण अवश्य देखा होगा कि जब भी किसी एक पशु पर हमला होता है सभी एक झुण्ड बना कर उसकी रक्षा के लिए प्रतिद्वंदी पर टूट पड़ते हैं। और इसी एकता के जोर के आगे सामने वाला डर कर या हार कर भाग जाता है। अर्थात पशुओं में भी अपनेपन का भाव , एक दूसरे का दुःख तकलीफ समझने का गुण ईश्वर ने दिया है। जबकि इसके विपरीत जब भी कोई इंसान कुछ अनुचित करता है तो हम कह उठते है की क्या जानवरों की तरह व्यव्हार कर रहे हो। ईश्वर ने मानव को बनाते समय उसमे दया करुणा प्रेम सौहार्द जैसे अनेकों गुण डालें है। पर आज की इस भागती दौड़ती दुनिया में इन गुणों को दूसरे अन्य नकारत्मक गुणों ने ढक लिया हैं। आज जो अवगुण सबसे ज्यादा देखने को मिलता है वह है सिर्फ अपनी तकलीफ ,अपने दुःख और अपने अनुभवों को ज्यादा महत्वपूर्ण समझना। परिस्थतियों द्वारा खुद को सबसे ज्यादा सताया हुआ घोषित करना। किन्ही दो लोगों की बातों में आपसी प्रतिक्रियाओं में यही पाएंगे की दोनों ही अपने अनुभवों में खुद को ज्यादा दुःखी ,तकलीफों से घिरा और दूसरे पर एहसान का बोझ डालते हुए नजर आएंगे। अर्थात उन्होंने ही सबसे ज्यादा परिश्रम ,दुःख और वेदना झेली है हमेशा दूसरों की मदद को तत्प्रर रहने के बावजूद उनके लिए कभी कोई नहीं आया। सामान्यतः अपनी ढपली अपना राग वाली सोच रिश्तों में दूरियां उत्पन्न करने लगती है। मैंने ये किया, मैंने वह किया,मैंने वह दिया उसने कुछ नहीं दिया ,मैंने वह सहा जबकि उसने तो कुछ नहीं सहा , उसके पास इतना है मेरे पास तो कुछ भी नही ,मैंने हमेशा उसका भला सोचा उसने कभी नहीं ………… इस तरह की सोच हर व्यक्ति में गहरी पैठ चुकी है। जीवन सबको अलग अलग पाठ पढ़ाता है और उसको झेलने का सबका तरीका और नज़रिया भी अलग होता है। उस का प्रभाव भी सब पर भिन्न भिन्न पड़ता है। इस लिए हर किसी के अनुभव उसके लिए मायने रखते होंगे पर दूसरे को भी समझना यही सच्चा मानव गुण है।
परिवारों में भी आजकल इसीलिए एका की भावना का ह्रास होने लगा है क्योकि अपने त्याग और बलिदानों की लंबी फेहरिस्त का लेखा जोखा दूसरे के प्रेम के आगे भारी पड़ने लगा है। मस्तिष्क भी न जाने कैसे एक डायरी सी पोषित कर लेता है जिस पर हर किये का लेखा जोखा समय और परिस्थिति के साथ अंकित कर लेता है। जिसे बेवजह हर पल याद दिला अपना पलड़ा भारी रखने को प्रोत्साहित करता रहता है। यदि कभी भी कोई अपने दुःख या तकलीफ को किसी के सामने रखता है तो उसकी सुनना और महसूस करना छोड़ हम अपना ही रोना शुरू कर देते हैं। यही सबसे बड़ा कारण है रिश्तों की नींव खोखली करने का। संयुक्त परिवारों का चलन इसी कारण से ख़त्म हो गया क्योंकि आज प्रत्येक व्यक्ति आत्म केंद्रित हो गया है। उसे अपने परिवार में सिर्फ अपने पत्नी पति या बच्चे ही दिखते हैं । उनके लिए ही जीते रहना मकसद बन गया है। जरूरी नहीं की इस महगाई के दौर में सब एक साथ ही रहें पर परिवार समाज के बीच तो रहेंगे ही । और इस के लिए जरूरी है की एक दूसरे की दुःख तकलीफ को अपने पर बीती जैसा समझ सहयोग करें। जब भी कभी कुछ करने की बात आती है तो क्यों उस डायरी के पन्ने पलट बीच में तराजू रख लेते हैं। और हिसाब किताब कर , कम या ज्यादा का लेखा जोखा मिलाने लगते हैं। प्रेम यदि है तो करने की इच्छा महत्वपूर्ण होगी न की फलगणना। रिश्ते चाहे वो पारिवारिक हों या सामाजिक तभी चिरस्थाई रह सकते है जब समान समझने का गुण साथ रहे। कम या ज्यादा परिस्थिति , आर्थिक स्थिति और क्षमता पर निर्भर करता है। इच्छा की कद्र करना जिस दिन मानव सीख जायेगा उस दिन अपने आप रिश्तों में मधुरता आ जाएगी। आत्म केंद्रित होने का चलन अब एकल परिवारों से सीधे बच्चो में भी आ रहा है। अब बच्चे भी सिर्फ अपने बारे में सोचते है धीमे धीमे ये स्वभाव बनता जा रह है। यही स्वभाव रिश्तों में दूरियां बढ़ाते हुए एक निश्चित समयोपरांत उन्हें ख़त्म करने की कगार पर ले आता है। जरा सोचिये की जो स्थिति आज हम अपने दूसरे रिश्तों में उत्पन्न कर रहें है वही हमें हमारे बच्चे दिखाएँ तो कैसा लगेगा ? अब भी बदलाव की गुंजाईश है जरूरत है सिर्फ एक पहल की।
यदा कदा आपस में लड़ने वाले पशुओं में भी एक गुण अवश्य देखा होगा कि जब भी किसी एक पशु पर हमला होता है सभी एक झुण्ड बना कर उसकी रक्षा के लिए प्रतिद्वंदी पर टूट पड़ते हैं। और इसी एकता के जोर के आगे सामने वाला डर कर या हार कर भाग जाता है। अर्थात पशुओं में भी अपनेपन का भाव , एक दूसरे का दुःख तकलीफ समझने का गुण ईश्वर ने दिया है। जबकि इसके विपरीत जब भी कोई इंसान कुछ अनुचित करता है तो हम कह उठते है की क्या जानवरों की तरह व्यव्हार कर रहे हो। ईश्वर ने मानव को बनाते समय उसमे दया करुणा प्रेम सौहार्द जैसे अनेकों गुण डालें है। पर आज की इस भागती दौड़ती दुनिया में इन गुणों को दूसरे अन्य नकारत्मक गुणों ने ढक लिया हैं। आज जो अवगुण सबसे ज्यादा देखने को मिलता है वह है सिर्फ अपनी तकलीफ ,अपने दुःख और अपने अनुभवों को ज्यादा महत्वपूर्ण समझना। परिस्थतियों द्वारा खुद को सबसे ज्यादा सताया हुआ घोषित करना। किन्ही दो लोगों की बातों में आपसी प्रतिक्रियाओं में यही पाएंगे की दोनों ही अपने अनुभवों में खुद को ज्यादा दुःखी ,तकलीफों से घिरा और दूसरे पर एहसान का बोझ डालते हुए नजर आएंगे। अर्थात उन्होंने ही सबसे ज्यादा परिश्रम ,दुःख और वेदना झेली है हमेशा दूसरों की मदद को तत्प्रर रहने के बावजूद उनके लिए कभी कोई नहीं आया। सामान्यतः अपनी ढपली अपना राग वाली सोच रिश्तों में दूरियां उत्पन्न करने लगती है। मैंने ये किया, मैंने वह किया,मैंने वह दिया उसने कुछ नहीं दिया ,मैंने वह सहा जबकि उसने तो कुछ नहीं सहा , उसके पास इतना है मेरे पास तो कुछ भी नही ,मैंने हमेशा उसका भला सोचा उसने कभी नहीं ………… इस तरह की सोच हर व्यक्ति में गहरी पैठ चुकी है। जीवन सबको अलग अलग पाठ पढ़ाता है और उसको झेलने का सबका तरीका और नज़रिया भी अलग होता है। उस का प्रभाव भी सब पर भिन्न भिन्न पड़ता है। इस लिए हर किसी के अनुभव उसके लिए मायने रखते होंगे पर दूसरे को भी समझना यही सच्चा मानव गुण है।
परिवारों में भी आजकल इसीलिए एका की भावना का ह्रास होने लगा है क्योकि अपने त्याग और बलिदानों की लंबी फेहरिस्त का लेखा जोखा दूसरे के प्रेम के आगे भारी पड़ने लगा है। मस्तिष्क भी न जाने कैसे एक डायरी सी पोषित कर लेता है जिस पर हर किये का लेखा जोखा समय और परिस्थिति के साथ अंकित कर लेता है। जिसे बेवजह हर पल याद दिला अपना पलड़ा भारी रखने को प्रोत्साहित करता रहता है। यदि कभी भी कोई अपने दुःख या तकलीफ को किसी के सामने रखता है तो उसकी सुनना और महसूस करना छोड़ हम अपना ही रोना शुरू कर देते हैं। यही सबसे बड़ा कारण है रिश्तों की नींव खोखली करने का। संयुक्त परिवारों का चलन इसी कारण से ख़त्म हो गया क्योंकि आज प्रत्येक व्यक्ति आत्म केंद्रित हो गया है। उसे अपने परिवार में सिर्फ अपने पत्नी पति या बच्चे ही दिखते हैं । उनके लिए ही जीते रहना मकसद बन गया है। जरूरी नहीं की इस महगाई के दौर में सब एक साथ ही रहें पर परिवार समाज के बीच तो रहेंगे ही । और इस के लिए जरूरी है की एक दूसरे की दुःख तकलीफ को अपने पर बीती जैसा समझ सहयोग करें। जब भी कभी कुछ करने की बात आती है तो क्यों उस डायरी के पन्ने पलट बीच में तराजू रख लेते हैं। और हिसाब किताब कर , कम या ज्यादा का लेखा जोखा मिलाने लगते हैं। प्रेम यदि है तो करने की इच्छा महत्वपूर्ण होगी न की फलगणना। रिश्ते चाहे वो पारिवारिक हों या सामाजिक तभी चिरस्थाई रह सकते है जब समान समझने का गुण साथ रहे। कम या ज्यादा परिस्थिति , आर्थिक स्थिति और क्षमता पर निर्भर करता है। इच्छा की कद्र करना जिस दिन मानव सीख जायेगा उस दिन अपने आप रिश्तों में मधुरता आ जाएगी। आत्म केंद्रित होने का चलन अब एकल परिवारों से सीधे बच्चो में भी आ रहा है। अब बच्चे भी सिर्फ अपने बारे में सोचते है धीमे धीमे ये स्वभाव बनता जा रह है। यही स्वभाव रिश्तों में दूरियां बढ़ाते हुए एक निश्चित समयोपरांत उन्हें ख़त्म करने की कगार पर ले आता है। जरा सोचिये की जो स्थिति आज हम अपने दूसरे रिश्तों में उत्पन्न कर रहें है वही हमें हमारे बच्चे दिखाएँ तो कैसा लगेगा ? अब भी बदलाव की गुंजाईश है जरूरत है सिर्फ एक पहल की।
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