स्वतंत्रता और परतंत्रता…………! 

स्वतंत्रता और परतंत्रता केवल देश और समाज से ही जुडी बातें नहीं है। ये व्यक्तित्व पर भी उसी तरह लागू होती है। अपनी स्वतंत्रता के साथ जीता हर व्यक्ति जब भी किसी नए रिश्ते में बंधता है उसे कहीं न कहीं, कोई न कोई समझौता करना ही पड़ता है यही से उसकी स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो जाते हैं।और वह खुद भी इस सोच के साथ जीना शुरू कर देता है की अब उसे उस रिश्ते की सुननी पड़ेगी, माननी भी पड़ेगी।न चाहते हुए भी उसे दूसरे रिश्ते की ख़ुशी का ख्याल में  सब करना पड़ सकता है। हर रिश्ते की अपनी मांग होती है उसे निभाते रहने के लिए उन मांगों को पूरा करते रहना पड़ता है तभी दोनों तरफ से रिश्ता समृद्ध रहता है। ऐसा तो है नहीं की बिना रिश्तों से जुड़े कोई इस समाज में जी सकता है यदि  कोई भी न हो तो भी जन्म देने वाले माँ-बाप तो होंगे ही।  लेकिन क्या उन की भी कोई अपेक्षाएं नहीं होंगी , उसे पूरा करना एक नैतिक जिम्मेदारी है। इन्ही जिम्मेदारिओं के तले आप की स्वतंत्रता परतंत्रता में बदल जाती है। इस का सीधा सा अर्थ है की अपनी स्वतंत्रता की सीमा रेखा का इतना विस्तार न किया जाए की वह दूसरे की स्वतंत्रता के दायरे में प्रवेश कर जाये। और वह उसे परतंत्रता समझ निभाने को बाध्य हो जाये।  जीवन रिश्तों का ताना -बाना है। और इसी में हर सुख - दुःख का पल पिरोया रहता है।  चुनने की काबिलियत जताती है की किस रिश्ते से कितनी ख़ुशी , कितने ग़म चुन रहे हैं। सामने वाला रिश्ता लाभ हानि के तराजू में भी नहीं तौला जा सकता। पाना या न पाना किस्मत और रिश्ते निभाने की के तरीके पर निर्भर करता है।
                                                                                              एक उदाहारण के अनुसार...................... relations are like investments that do not gain profits but end up making us rich. अर्थात रिश्ते जरूरी नहीं की हमेशा कुछ दे फिर भी उनका हमारे जीवन में बने रहना , हमें समृद्ध करता है। स्वतंत्रता का दायरा किसी भी रिश्ते के टूटने या बिखरने के पार नहीं होना चाहिए। करना और पाते रहना यही रिश्ता है कम या ज्यादा ये परिस्थिति और  हद पर निर्भर करता है। स्वतंत्र रहते हुए रिश्तों की गरिमा बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका है की   एक दूसरे  की जीवन से जुड़ी शर्तों का सम्मान किया जाए। और उन्हें उचित फैलाव का स्थान दिया जाए। दखलअंदाजी रिश्तों में से स्वतंत्रता छीन लेती है। और अनाधिकार प्रवेश रिश्तों के बीच का प्रेम समाप्त कर उसमे धीमा विष घोलने लगता है। जीयें और जीने दें   ………  इस सत्य के साथ चले , स्वतंत्रता अपने आप ही पीछे पीछे चलेगी।  परतंत्रता कभी भी पनपने नहीं देती।  एक पक्षी भी खुले आकाश में स्वछंद हो कर उड़ते हुए जो ख़ुशी महसूस करता है पिंजरे में उसे कैसे मिलेगी। अपने व्यक्तिव की अलग पहचान ही स्वतंत्र होना  कहलाती है भले ही उसके इर्द -गिर्द कितने भी रिश्ते गुंथे हुए हो। अतः स्वतंत्र रहें पर रिश्तों की मर्यादा सीमा में रहकर। तभी आप की स्वतंत्रता समाज को स्वीकार होगी। और खुल के जीने का भरपूर मौका मिलेगा।   

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