निश्छल बचपन ............. !
बचपन ……………! निश्छलता से भरा हुआ। जिसे दुनियादारी से न तो कोई मतलब न ही उसकी कोई चिंता। इसी लिए बचपन में बच्चों को ईश्वर का रूप कहते है। पल में रोना ,पल में हंसना , किसी भी बात को दिल पर न लगाना और अपनी ख़ुशी के लिए वह सब करना जो शायद पसंद न हो, यही बचपन का असली रूप है। जन्म के बाद से एक बालक अपनी माँ द्वारा अनेकों संस्कार पाता है। वह सब उसके जीवन को आगे चलाने के लिए आवश्यक होते हैं। हम जो कुछ भी सीखते और समझते हैं वह सब कुछ समाज के नियम और कायदे के अनुरूप ही बताया जाता है। अर्थात कोई भी माँ अपनी संतान को गलत शिक्षा नहीं दे सकती। वह वही सब सीख कर बड़ा होता है जो सामाजिक रूप से स्वीकार्य और प्रचलित होता है। फिर क्या होता है कि बालक के बड़ा होते ही उसके जीने के मायने बदल जाते हैं.
वह निश्चलता जो कभी मनमोहक लगा करती थी वह उसकी अपनी सोच और समझ के अनुसार बदल कर नए दौर की जीवनशैली बन जाती है। यह नहीं कहा जा सकता की जो जीवन वह चुनते है वह उचित नहीं है पर उसमे वह ठहराव नहीं होता जिसकी उम्मीद अभिभावक उनसे लगा कर रखते हैं। यह तो हो ही नहीं सकता की आधुनिक चलन के प्रभाव में आकर अभिभावक अपनी संतान से उम्मीद लगाना छोड़ दें। आज भी संतान के अच्छे भविष्य के लिए वो उसकी हर क्रियाकलाप पर ध्यान रखते हैं और समय समय पर अपनी राय भी देते हैं। जो की आज की पीढ़ी को हरगिज बर्दाश्त नहीं होता। यहीं अंतर आ जाता है बचपन और बड़प्पन में। वही कार्य जो बचपन में प्यार और डर के कारण आसानी से हो जाते है उसी के लिए बड़े हो कर निवेदन करना पड़ता है। जीने के ढंग पर भी यदा कदा तकरार होती रहती है बचपन में जो भी पहना दो जो भी चाहे खिला दो जहाँ भी चाहे ले जाओ या जैसे भी चाहो रख लो सब जायज होता है यही सब बड़े होने पर नाजायज सा प्रतीत होने लगता है। भोलेपन में उनकी सारी दुनिया उनके परिवार के इर्द- गिर्द ही घूमती है। बड़े होने पर परिवार के दायरे बदल जाते है और उसमे वह लोग भी शमिल हो जाते है जो परिवार के प्रतिकूल वातावरण बना देते हैं। उन्हें वह सब बंधन सा प्रतीत होने लगता है। आजादी मतलब अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता। यही सब कभी -कभी उन्हें उस राह पर भी ले जाता है जो जीवन को गर्त में गिरा देती हैं। यह सब उपजता कहाँ से हैं ? यदि हर बालक अपने परिवार से मिले संस्कारों के हिसाब से जी रहा होता है तो कैसे उसे गलत राह दिखाने वाले मिल जातें है। इस का उत्तर ये है की समाज में अच्छे बुरे सभी लोग रहते हैं ये हमारा चुनाव है की हम किसे चुनते हैं। कमल भी कीचड़ में खिलकर अपना सौंदर्य बरक़रार रखता है क्या इसी तरह हम भी अपना भोलापन, अपनी निश्छलता ,अपना मान बनाये रखते हुए नई दुनिया में नए तरीकों के साथ नहीं जी सकते। सामंजस्य बैठाना एक चुनौती है पर असंभव नहीं ..........
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