सोच और कार्यों से बालिग.................!
समय के साथ निरंतर बदलाव प्रकृति का नियम है। परन्तु प्रकृति भी इस बदलाव में तारतम्य बनाये रखने के लिए समय समय पर नियम भंग का दंड देती रहती है। अर्थात बदलो लेकिन नियमों के अधीन रहकर। एक सत्य जो आज कल सबके मन मस्तिष्क पर चोट दे रहा है की युवा होती पीढ़ी क्यों नियमों के विरुद्ध जाने के लिए उत्तेजित रहती है ? हालाँकि कानून व्यवस्था के प्रभाव से नियम विरुद्ध जाने के अनेकों  प्रयास असफल हो जाते  है परन्तु विकृत होती मानसिकता कही से मार्ग निकाल ही लेती है अपनी इच्छा पूर्ति के लिए। इसी मनःस्थिति का विकसित होना युवाओं के लिए घातक है। दस वर्ष की आयु के बाद ही बालक बालिका इस विकृत मनःस्थिति का शिकार होने लगते हैं और पूर्ति के लिए रास्तों का निर्माण करने लगते हैं। 
                        दुःख की बात यह है की कानून व्यवस्था की नजर में यदि एक बालक वयस्क गुनाह करे तो भी वह बालक ही रहेगा। जब सोच और कार्यों से बालक वयस्क हो जाता है तो उसे नाबालिग मान कर सज़ा से महरूम रखना क्या उचित है ? निर्भया कांड में उस छोटे सदस्य को आज भी बाल सुधार केंद्र में रखा गया है जबकि सोच और कर्म से उसने सबसे ज्यादा जघन्य कार्य किया था। बालिग होने की उम्र का निर्धारण सही है पर उस निर्धारण में शरीर के विकास के साथ , सोच के विकास का भी मुल्यांकन किया जाना चाहिए। अबोध मन की कोमलता इतना घृणित कैसे सोचेगी ? सोच के विकास का पता उसके जीने के तरीके को देख कर लगाया जा सकता है। निश्छल मन और बिना परिणाम जाने कुछ भी कर सकने की उम्र में भी माता पिता का भय रहता है। उनकी डांट ही घर की क़ानून व्यवस्था बनाये रखती है। फिर न जानने की उम्र में भी सब कुछ जानते समझते जघन्य अपराध पर  उन्हें बच्चा कैसे मान लिया जाता है। 
       बाल विवाह पर रोक इस लिए लगाई गयी कि   अपरिपक्व शरीर के साथ वर वधु दोनों विवाह को नहीं समझ पाते थे। मन और तन दोनों ही तमाम जिम्मेदारियों को सँभालने में असफल रहते हैं।  ये सोच सही है और जरूरी भी। पर अब क्या …… जब बड़ा होता बच्चा ही इस मोहजाल से निकलना नहीं चाहता। और अगर वह ऐसा सोच रहा है तो उसे बच्चा तो कत्तई नहीं मानना चाहिए। बच्चों को भगवान  का रूप कहकर बुलाते है। और ईश्वर समतुल्य बालक से क्या आप ऐसे जघन्य  अपराध या फिर सिर्फ सोच की भी उम्मीद करेंगे ? कानून को इस बारे में पुनः विचार देखना चाहिए। क्योंकि  कठोर कारावास के बजाये सिर्फ कुछ दिनों की सज़ा या थोड़ा सा मुचलका दिए जाने पर रिहाई उन्हें डराने के बजाये ऐसे कृत्यों की ओर उकसा रही है। सोच का दिन प्रतिदिन और वयस्क होने ने उन का भोला बचपन छीन लिया है। परन्तु इस के जिम्मेदार भी हम ही है। क्या कभी सोचा है कि जब बच्चा छोटा होकर कोई बड़ी बात कहता है तो हम गर्व महसूस कर लोगो को अपने  बच्चे का समय से आगे चलने का किस्सा बयां करते है। तब क्या यह सोचा की हर बात और गतिविधि की एक उम्र होती है। ये सोच समाज के बीच आने पर और ज्यादा वृहद होने लगती है और उसके दायरे में उन रिश्तों के कीड़े भी कुलबुलाने लगते है जो उसकी पहुँच से बाहर है। मन, सोच और कार्यों से  किसी को बड़ा या छोटा मानना सही निर्णय है जो की एक समय बाद शायद कानून को भी मानना पड़ेगा। समस्या ये है की एक वकील या अधिवक्ता अपने पेशे को निभाते हुए घृणित कार्य करने पर भी  न जाने कैसी दलीलें दे कर अपराधी को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते है। जो की शायद उनकी नजर में भी जायज नहीं होंगी। कहावत है न कि जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई .......!धन कमाने की चाह अपराध का स्तर जानते हुए भी उस अपराधी को मुक्ति दिला देती है। सिर्फ एक बार निर्भया के माता पिता बन कर सोचें तो उस पीड़ा का पता चलेगा जो उन्होंने अपनी बच्ची को झेलते और उसी के कारण मरते हुए देखा है।  जरूरी है कि सोच और कार्यों के आधार पर बालिग या नाबालिग होने  निर्णय लिया जाये न की उम्र के आधार पर। नए ज़माने की नयी सोच ने बहुत कुछ बदला है अब कानून भी बदल कर पीड़ित को न्याय दिलाये।यही वक्त की और समाज की मांग है। 

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